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पुरातन-जैनवाक्य-सूची है कि जितने प्रमाण उसके पास हो वह उन सबको ही उपस्थित करे-वह जिन्हें प्रसंगानुसार उपयुक्त और जरूरी समझता है उन्हीको उपस्थित करता है और एक ही श्राशयके यदि अनेक प्रमाण हों तो उनमेसे चाहे जिसको अथवा अधिक प्राचीनको उपस्थित कर देना काफी होता है। उदाहरणके लिये 'मुहतलसमासअद्धं' नामकी गाथासे मिलती जुलती और उसी आशयकी एक गाथा तिलोयपएणतीमे निम्न प्रकार पाई जाती है:
मुहभूमिसमासद्धिय गुणिदं तुंगेन तह य वेधेण ।
घणगणिदं णादव्यं वेत्तासण-सण्णिए खेत्ते ॥१६५।। इस गाथाको उपस्थित करके यदि वीरसेनने 'मुहतलसमासपद्ध' नामकी उक्त गाथाको उपस्थित किया जो शंकाकारके मान्य सूत्रग्रंथकी थी तो उन्होंने वह प्रसंगानुसार उचित ही किया, और उसपरसे यह नहीं कहा जा सकता कि वीरसेनके सामने तिलोयपएणत्तिकी यह गाथा नहीं थी, होती तो वे उसे जरूर पेश करते । क्योकि शंकाकार मूल सूत्रोके व्याख्यानादि-रूपमें स्वतंत्ररूपसे प्रस्तुत किये गए तिलोयपएणत्ती जैसे ग्रथोंको माननेवाला मालूम नहीं होता-माननेवाला होता तो वैसी शंका ही न करता, वह तो कुछ प्राचीन मूलसूत्रोंका पक्षपाती जान पड़ता है और उन्हींपरसे सब कुछ फलित करना चाहता है । उसे वीरसेनने मूलमूत्रोंको कुछ दृष्टि बतलाई है और उसके द्वारा पेश की हुई सूत्रगाथाओंकी अपने कथनके साथ संगति विठलाई है। और इस लिये अपने द्वारा सविशेषरूपसे मान्य ग्रंथोके प्रमाणोंको उपस्थित करनेका वहां प्रसंग हो नहीं था। उनके आधारपर तो वे अपना सारा विवेचन अथवा व्याख्यान लिख ही रहे हैं।
अब मै तिलोयपएणत्तीसे भिन्न दो ऐसे प्राचीन प्रमाणोको भी पेश कर देना चाहता हूँ जिनसे यह स्पष्ट जाना जाता है कि वीरसेनकी धवला कृतिसे पूर्व अथवा (शक स० ७३८ स पहले) छह द्रव्योंका आधारभूत लोक, जो अधः ऊर्ध्वं तथा मध्यभागमे क्रमशः वेत्रामन, मदग तथा झल्लरीके सदृश आकृतिको लिये हुए है अथवा डेढ मदंग जैसे आकारवाला है उसे चौकोर (चतुरस्रक) माना है। उसके मूल, मध्य, ब्रह्मान्त और लोकान्तमे जो क्रमशः सात, एक, पॉच, तथा एक राजुका विस्तार बतलाया गया है वह पूर्व और पश्चिम दिशाको अपेक्षासे है, दक्षिण तथा उत्तर दिशाकी अपेक्षासे सर्वत्र सात राजुका प्रमाण माना गया है और इसी लोकको सात राजुके घनप्रमाण निर्दिष्ट किया है:
(अ) कालः पञ्चास्तिकायाश्च स प्रपञ्चा इहाऽखिलाः ।
लोस्यंते येन तेनाऽयं लोक इत्यभिलप्यते ॥४-५॥ येत्रासन-मदंगोरु-झन्लरी-सदृशाऽऽकृतिः । अधश्चोर्ध्वं च तिर्यक् च यथायोगमिति त्रिधा ॥४-६॥ मुजर्धिमधोभागे तस्योर्चे मुरजो यथा ।
आकारस्तस्य लोकस्य किन्त्येप चतुरस्त्रकः ॥४-७॥ ये हरिवंशपुराणके वाक्य हैं, जो शक सं० ७०५ (वि० सं०८४०) मे बनकर समाप्त हुआ है । इसमें उक्त आकृतिवाले छह द्रव्योके आधारभूत लोकको चौकोर '(चतुरस्रक) बतलाया है- गोल नहीं, जिसे लम्बा चौकोर समझना चाहिये ।
(आ) सत्तेक्कुपंचइक्का मूले मज्झे तहेव वंभंते ।
लोयंते रज्जूओ पुत्वावरदो य वित्थारो ॥११८॥