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प्रस्तावना
४७ तालवृक्षके समान आकार दिखाई देता है। और तीसरी गाथा ('लोयस्स विक्खंभो चउप्पयारो') के साथ भी विरोध नहीं है, क्योंकि यहॉपर भी पूर्व और पश्चिम इन दोनों दिशाओ में गाथोक्त चारों ही प्रकारके विष्कम्भ दिखाई देते हैं । सात राजुको मोटाई करणानुयोग सूत्रके विरुद्ध नहीं है, क्योकि उक्त सूत्रमे उसको यदि विधि नहीं है तो प्रतिपेध भी नहीं है -विधि और प्रतिपेघ दोनोंका अभाव है । और इसलिये लोकको उपर्युक्त प्रकारका ही ग्रहण करना चाहिये।
___ यह सब धवलाका वह कथन है जो शास्त्रीजीके प्रथम प्रमाणका मूल आधार है और जिसमे राजवार्तिकका कोई उल्लेख भी नहीं है। इसमे कहीं भी न तो यह निर्दिष्ट है और न इसपरसे फलित ही होता है कि वीरसेन स्वामी लोकके उत्तर-दक्षिणमे सर्वत्र सात राजु मोटाई वालो मान्यताके सस्थापक है-उनसे पहले दूसरा कोई भी आचार्य इस मान्यताको माननेवाला नहीं था अथवा नहीं हुआ है। प्रत्युत इसके, यह साफ जाना जाता है कि वीरसेनने कुछ लोगोकी गलतोका समाधानमात्र किया है-स्वय कोई नई स्थापना नहीं की। इसी तरह यह भी फलित नहीं होता कि वीरसेनके सामने 'मुहतलसमासश्रद्धं'
और 'मूलं मज्झेण गुण' नामको दा गाथाओके सिवाय दूसरा कोई भी प्रमाण उक्त मान्यताको स्पष्ट करनेके लिये नहीं था । क्योकि प्रकरणको देखते हुए 'अण्णाइरियपरूविदमुदिंगायारलोगस्स' पदमे प्रयुक्त हुए 'अण्णाइरिय' (अन्याचार्य) शब्दसे उन दूसरे आचार्योंका ही ग्रहण किया जा सकता है जिनके मतका शकाकार अनुयायी था अथवा जिनके उपदेशको पाकर शकाकार उक्त शका करनेके लिये प्रस्तुत हुआ था, न कि उन आचार्यों का जिनके अनुयायी स्वयं वीरसेन थे और जिनके अनुसार कथन करने की अपनी प्रवृत्तिका वीरसेनने जगह जगह उल्लेख किया है। इस क्षेत्रानुगम अनुयोगद्वारके मगलाचरण मे भी वे खेत्तसुत्त जहोवएसं पयासेमो' इस वाक्यक द्वारा यथोपदेश (पूर्वाचार्यों के उपदेशानुसार) क्षेत्रसूत्रको प्रकाशित करनेकी प्रतिज्ञा कर रहे हैं। दूसरे, जिन दो गाथाओ को वीरसेनने उपस्थित किया है उनसे जब उक्त मान्यता फलित एवं स्पष्ट होती है तब वीरसेनको उक्त मान्यताका सस्थापक कैसे कहा जा सकता है, ?-वह तो उक्त गाथाओंसे भी पहलेकी स्पष्ट जानी जाती हैं। और इससे तिलोयपरणत्तीको वीरसेनसे बादकी बनी हुई कहने मे जो प्रधान कारण था वह स्थिर नहीं रहता । तीसरे, वीरसेनने 'मुइतलसमासपद्ध' आदि उक्त दोनो गाथाएँ शकाकारको लक्ष्य कर के ही प्रस्तुत को हैं और वे संभवतः उसी ग्रन्थ अथवा शकाकारके द्वारा मान्य ग्रन्थकी जान पड़ती हैं जिसपरसे तीन सूत्रगाथाएँ शंकाकारने उपस्थित की थीं, इसीसे वोरसेनने उन्हें लोकका दूसरा आकार मानने पर निरर्थक बतलाया है। और इस तरह शकाकारके द्वारा मान्य ग्रन्थके वाक्यों परसे ही उसे निरुत्तर कर दिया है । और अन्त मे जब उसने करणानुयोगसूत्र' के विरोध की कुछ बात उठाई है अर्थात् ऐसा संकेत किया है कि उस ग्रन्धमे सात राजुकी मोटाईकी कोई स्पृष्ट विधि नही है तो वीरसेनने साफ उत्तर दे दिया है कि वहां उसकी विधि नहीं तो निपेच भी नहीं है-विधि और निषेध दोनों के अभावसे विरोधके लिये कोई अवकाश नहीं रहता। इस विवक्षित 'करणानुयोगसूत्र'का अर्थ करणानुयोग-विपयके समस्त ग्रंथ तथा प्रकरण समझ लेना युक्तियुक्त नहीं है । वह 'लोकानुयोग'को तरह, जिसका उल्लेख सर्वार्थसिद्धि
और लोकविभागमे भी पाया जाता है', एक जुदा ही ग्रंथ होना चाहिये । ऐसी स्थितिमे वीरसेनके सामने लोकके स्वरूप सम्बन्धमें अपने मान्य ग्रंथों के अनेक प्रमाण मोजूद होते हुए भी उन्हें उपस्थित (पेश) करने की जरूरत नहीं थी और न किसीके लिये यह लाजिमी १ "इतरो विशेपो लोकानुयोगत. वेदितव्य." (३-२) -सर्वार्थसिद्धि "विन्दुमात्रमिदं शेषं ग्राह्यं लोकानुयोगतः" (७-६८) -लोकविभाग