________________
पुगतन-जैनवाक्य-सूची हुआ केवली लोकके सख्यात भागमे रहता है । और शंकाकार जिनका अनुयायो है उन दूसरे आचार्याक द्वारा प्ररूपित मदंगाकार लोकके प्रमाणकी दृष्टिले लोकपूरण समुद्धातनात केवलीका लोकके संख्यातवे भागमे रहना असिद्ध भी नहीं है क्योंकि गणना करने पर मृदंगाकार लोकका प्रमाण घनलोकके संख्यानवे भाग ही उपलब्ध होता है ।
इसके अनन्तर गणित वाग घनलोकके सख्यातवे भागको सिद्ध घोपित करके, वीरसेन स्वामीने इतना और बतलाया है कि इस पंच द्रव्योंके आधाररूप आकाशसे अतिरिक्त दूसरा सात राजु पनप्रमाण लोकमंज्ञक कोड क्षेत्र नहीं है, जिससे प्रमाणलोक (उपमालोक) छह द्रव्योके समुदायरूप लोकने भिन्न होवे । और न लोकाकाश तथा अलोकाकाश दोनोमे स्थित सातराजु धनमात्र आकाश प्रदेशोंकी प्रमाणरूपमे स्वोकृत 'धनलोक' संज्ञा है। ऐसी संज्ञा स्वीकार करनेपर लोकमनाके यादृच्छिक्रपने का प्रसंग आता है
और तब संपूर्ण आकाश, जगणी, जगप्रतर और घनलोक जसी संज्ञायोंके यादृच्छिकपनेका प्रसंग उपस्थित होगा । (और इससे सारी व्यवस्था हो बिगड जायगी) इसके सिवाय, प्रमाणलोक और पदव्योके समुदायरूप लोकको भिन्न माननेपर प्रतरगत केवलोके क्षेत्रका निरूपण करते हुए यह जो कहा गया है कि 'वह केवली लोकके असंख्यातवे भागमे न्यून सर्वलोकमे रहता है और लोकके असंख्यातवें भागसे न्यून सर्वलोक्का प्रमाण उर्ध्वलोकके कुछ कम तीसरे भागमे अधिक दो ऊर्ध्वलोक प्रमाण है।' वह नहीं बनता। और इसलिये दोनों लोकोकी एकता सिद्ध होती है । अत. प्रमाणलोक (उपमालोक) श्राकाशप्रदेशोकी गणनाकी अपेक्षा छह द्रव्योंके समुदायरूप लोकके समान है, ऐसा स्वीकार करना चाहिये।
इसके बाद यह शंका होनेपर कि किस प्रकार पिण्ड (धन) रूप किया गया लोक सात राजुके घनप्रमाण होता है ? वीरसेन स्वामीने उत्तरमे बतलाया है कि 'लोक संपूर्ण
काशके मध्यभागमे स्थित है' चौदह राजु आयामवाला है दोनों दिशाप्रोके अर्थात पूर्व और पश्चिम दिशाके मूल, अर्धभाग, त्रिचतुर्भाग और चरम भागमे क्रमसे सात. एक, पाँच और एक राजु विस्तारवाला है, तथा सर्वत्र सात राजु मोटा है, वृद्धि और हानिके द्वारा उसके दोनों प्रान्तभाग स्थित है, चौदह राजु लम्बी एकराजुके वर्गप्रमाण मुखवाली लोकनाली उसके गर्भमे है, ऐसा यह पिण्डरूप किया गया लोक सात राजुके धनप्रमाण अर्थात् wxsxv=३४३ राजु होता है । यदि लोकको ऐसा नहीं माना जाता है तो प्रतर-समुद्घातगत केवलीके क्षेत्रके साधनार्थ जो 'मुहतलसमासअद्धं' और 'मूल मझेण गुणं' नामकी दो गाथाएँ कही गई हैं वे निरर्थक हो जायेगी, क्योंकि उनमे कहा गया घनफल लोकको अन्य प्रकारसे मानने पर संभव नहीं है। साथ ही, यह भी बतलाया है कि 'इस (उपर्युक्त आकार वाले) लोकका शंकाकारके द्वारा प्रस्तुत की गई प्रथम गाथा ( हेटा मज्झे उवरि वेत्तासनमल्लरीमुइंगणिभो') के साथ विरोध नहीं है, क्योकि एक दिशामे लोक वेत्रासन और मदंगके आकार दिखाई देता है, और ऐसा नहीं कि उसमे झल्लरीका आकार न हो; क्योंकि मध्यलोकमे स्वयभूरमण समुद्रसे परिक्षिप्त तथा चारों ओरसे असख्यात योजन विस्तार वाला और एक लाख योजन मोटाईवाला यह मध्यवर्ती देश चन्द्रमण्डलकी तरह झल्लरी के समान दिखाई देता है । और दृष्टान्त सर्वथा दाष्टन्तिके समान होता भी नहीं, अन्यथा दोनोके ही अभावका प्रसग आजायगा । ऐसा भी नहीं कि (द्वितीय सूत्रगाथामे बतलाया हुआ) तालवृक्षके समान आकार इसमे असंभव हो, क्योंकि एक दिशासे देखनेपर १ 'पदरगदो केवली केवडि खेत्ते लोगे असखेज्जदिभागूणे । उड्ढलोगेण दुवे उड्ढलोगा उड्ढलोगस्स तिभागेण देसूणेण सादिरेगा ।'