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________________ प्रस्तावना १०३ संस्कारोंसे संस्कृत होकर जैनधर्म में दीक्षित हुए हों और दिगम्बराचार्य दामनन्दीके शिष्य बने हों, जिनकी गुरुता और अपनी शिष्यताका उन्होंने अन्धमें खास तौरपर उल्लेख किया है। और इसीसे उन्होंने अपनेको 'अनुज' लिखा हो। यदि ऐसा होतो फिर 'महादेव' को उनका बड़ा भाई न कहकर कोई दूसरा ही विद्वान कहना होगा। भट्टवोसरिने जिन दिगम्बराचार्य दामनन्दीका अपनेको शिष्य घोषित किया है वे संभवतः वे ही जान पड़ते हैं जिनका श्रवणवेल्गोलके शिलालेख नं०५५ (६६) में उल्लेख है, जिन्होने महावादी विष्णुभट्टको वादमे पराजित किया था-पीस डाला था, और इसीसे जिनको 'विष्णुभट्ट-घरट्ट' लिखा है । ये दामनन्दी, शिलालेखके अनुसार, उन प्रभाचन्द्राचार्यकै सघर्मा (साथी अथवा गुरुभाई) थे जिनके चरण घाराऽधिपति भोजराजके द्वारा पूजित थे और जिन्हें महाप्रभावक उन गोपनन्दी आचार्यका सधमा लिखा है जिन्होंने कुवादि-देत्य धूर्जटिको वादमे पराजित किया था । धूर्जटि और महादेव दोनों पर्याय नाम हैं, आश्चर्य नहीं जिन महादेवका उक्त प्रशस्तिपद्यमे उल्लेख है वे ये ही धूर्जटि हो और इनकी तथा विष्णुभट्टकी घोर पराजयको देखकर ही भट्टवोसरि जैनधर्ममे दीक्षित हुए हों, और इसीसे उन्होंने महादेवस प्राप्त ज्ञानको 'प्रमितविपय' विशेपण दिया हो और दामनन्दीसे प्राप्त ज्ञानको 'अमनाक' विशेषणस विभूषित किया हो । अस्तु, गुरुदामनन्दीके विषयमे मेरी उक्त कल्पना यदि ठीक है तो वे भोजराजके प्रायः समकालीन ठहरे और इसलिये उनके शिष्यका यह ग्रन्थ विक्रमको १२वीं शताब्दीका बना हुआ हाना चाहिये। ५० श्रुतस्कन्ध-यह ६४ गाथात्मक ग्रंथ वादशाङ्ग तके अवतार एवं पदसंख्या दिसहित वर्णनको लिये हुए है । इसके कर्ता ब्रह्म हेमचंद्र हैं, जो देशयति थे और जिन्होंने रामनन्दी सिद्घान्ति के प्रसादसे तिलंगदेशान्तर्गत कुण्डनगरके उद्यानमें स्थित सुप्रसिद्ध चन्द्रप्रभजिनके मन्दिरमे इसकी रचना की है। ग्रंथमें रचनाकाल नहीं दिया और जिन रामनन्दीके प्रसादसे यह ग्रंथ रचा गया है उन्हें सिद्धान्ती-सिद्धान्तशास्त्र अथवा आगम के जानकार--सूचित करने के सिवाय उनका और कोई परिचय भी नहीं दिया गया । ऐसी स्थितिमे ग्रंथपरसे यह मालूम करना कठिन है कि वह कबका बना हुआ है। हाँ, रामनन्दी का उल्लेख अग्गलदेवके चंद्रप्रभपुराणमे आया है, जहाँ उन्हें नमस्कार किया गया है, और यह चंद्रप्रभपुराण शक संवत् ११११, वि० सं० १२४६ मे बना है, इसलिये रामनन्दी वि०सं० १२४६ (ई० सन् ११८८) से पहले हुए हैं, और तदनुसार यह ग्रंथ भी वि० सं० १२४६ से पहलेका बना हुआ जान पड़ता है। परन्तु कितने पहलेका ? यह रामनन्दीके समयपर निर्भर है। ___एक रामनन्दीका उल्लेख कुन्दकुन्दान्वयी माणिक्यनन्दी त्रैविधके शिष्य नयनन्दी ने अपने सुदर्शनचरितको प्रशस्तिमे किया है, जो अपभ्रंशभाषाका ग्रथ है, और उन्हें अपने गुरु माणिक्यनन्दीका गुरु तथा वृषभनन्दी सिद्धान्तीका शिष्य सूचित किया है। V१ "रइश्रो तिलंगदेसे आरामे कुडणयरि सुपसिद्धे ।। चदप्पहजिणमदरि रइया गाहा इभे विमला || ८६ ॥" "सिद्धतिरामणदीमहापसारण रयउ सुयखंघो । लइश्रो संसारफलो देसजईहेमयदेण" ।। ६२ ॥ २ जिणंदस्स वीरस्स तित्थे महंते, महा कु दकु दंनए एत संते । सुणरकाहिहाण तहा पोमणदी खमाजुत्त सिद्ध तउ विसहणंदी ॥१॥ जिणिंदागमाहासणे एयचित्तो तवायारणट्टीए लद्धीयजुत्तो । णरिंदामरिंदेहि सो णदवंतो हुो तस्स सीसो गणी रामणदी ॥ २ ॥ - -
SR No.010449
Book TitlePuratan Jain Vakya Suchi 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1950
Total Pages519
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size33 MB
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