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________________ १३३ प्रस्तावना लब्ध नहीं होता। इतनेपर भी प्रबन्ध-वर्णित सिद्धसेनकी कृतियोंमे उसे भी शामिल किया जाता है । यह कितने आश्चर्यकी बात है इसे विज्ञ पाठक स्वय समझ सकते हैं। ग्रन्थकी प्रस्तावनामे प० सुखलालजी आदिने, यह प्रतिपादन करते हुए कि 'उक्त प्रवन्धोमें वे द्वात्रिशिकाएँ भी जिनमे किसीकी स्तुति नहीं है और जो अन्य दर्शनी तथा स्वदर्शनके मन्तव्योंके निरूपण तथा समालोचनको लिये हुए हैं स्तुतिरूपमें परिगणित हैं और उन्हें दिवाकर(सिद्धसेन)के जीवनमे उनकी कृतिरूपसे स्थान मिला है, इसे एक 'पहेली' ही बतलाया है जो स्वदर्शनका निरूपण करनेवाले और द्वात्रिशिकाप्रोसे न उतरनेवाले (नीचा दर्जा न रखनेवाले) 'सन्मतिप्रकरण'को दिवाकरके जीवनवृत्तान्त और उनकी कृतियोमे स्थान क्यो नहीं मिला । परन्तु इस पहेलीका कोई समुचित हल प्रस्तुत नहीं किया गया, प्रायः इतना कहकर ही सन्तोष धारण किया गया है कि 'सन्मतिप्रकरण यदि बत्तीस श्लोकपरिमाण होता तो वह प्राकृतभापामे होते हुए भी दिवाकरके जीवनवृत्तान्तमे स्थान पाई हुई सस्कृत वत्तीसियोके साथमें परिगणित हुए विना शायद ही रहता।' पहेलीका यह हल कुछ भी महत्व नहीं रखता । प्रवन्धोंसे इसका कोई समर्थन नहीं होता और न इस बातका काई पता ही चलता है कि उपलब्ध जा द्वानिशिकाएँ स्तुत्यात्मक नहीं हैं वे सब दिवाकर सिद्धसेनके जीवनवृत्तान्तमे दाखिल हो गई हैं और उन्हें भी उन्हीं सिद्धसेनकी कृतिरूपसे उनमें स्थान मिला है, जिससे उक्त प्रतिपादनका हो समर्थन होता-प्रवन्धवर्णित जीवनवृत्तान्तमे उनका कहीं कोई उल्लेख ही नहीं हैं । एकमात्र प्रभावकचरितमे 'न्यायावतार'का जो असम्बद्ध, असमर्थित और असमञ्जस उल्लेख मिलता है उसपरसे उसकी गणना उस द्वात्रिंशद्वात्रिंशिकाके अङ्गरूपमें नहीं की जा सकती जो सब जिन-स्तुतिपरक थी, वह एक जुदा ही स्वतन्त्र ग्रन्थ है जैसा कि ऊपर व्यक्त किया जा चुका है । और सन्मतिप्रकरणका बत्तीस श्लोकपरिमाण न होना भी सिद्धसेनके जीवनवृत्तान्तसे सम्बद्ध कृतियोमें उसके परिगणित होनेके लिये कोई वाधक नहीं कहा जा सकता-खासकर उस हालतमें जब कि चवालीस पद्यसख्यावाले कल्याणमन्दिरस्तात्रको उनकी कृतियोंमें परिगणित किया गया है और प्रभावकचरितमे इस पद्यसख्याका स्पष्ट उल्लेख भी साथमें मौजूद है। वास्तवमें प्रबन्धोंपरसे यह ग्रन्थ उन सिद्धसेनदिवाकरकी कृति मालूम ही नहीं होता, जो वृद्धवादीके शिष्य थे और जिन्हें आगमग्रन्थोंको सस्कृतमे अनुवादित करनेका अभिप्रायमात्र व्यक्त करनेपर पारश्चिकप्रायश्चित्तक रूपमे बारह वर्ष तक श्वताम्बर सघसे बाहर रहनेका कठोर दण्ड दिया जाना बतलाया जाता है । प्रस्तुत ग्रन्थको उन्हीं सिद्धसेनकी कृति वतलाना, यह सव वादको कल्पना और योजना ही जान पड़ती है। प. सुखलालजीने प्रस्तावनामे तथा अन्यत्र भी द्वात्रिंशिकाओ, न्यायावतार और सन्मतिसूत्रका एककत व प्रतिपादन करनेके लिये कोई खास हेतु प्रस्तुत नहीं किया, जिससे इन सब कृतियोंको एक ही प्राचार्यकृत माना जा सके, प्रस्तावनामे केवल इतना ही लिख दिया है कि 'इन सबके पीछे रहा हुश्रा प्रतिभाका समान तत्त्व ऐसा मानने के लिये ललचाता है कि ये सब कृतियाँ किसी एक ही प्रतिभाके फल हैं।' यह सब कोई समर्थ युक्तिवाद न होकर एक प्रकारसे अपनी मान्यताका प्रकाशनमात्र हैं, क्योंकि इन सभी ग्रन्थोपरसे प्रतिभाका ऐसा कोई असाधारण समान तत्त्व उपलब्ध नहीं होता जिसका अन्यत्र कही भी दर्शन न होता हो । स्वामी समन्तभद्रके मात्र स्वयम्भूस्तोत्र और आप्तमीमासा ग्रन्थोके साथ इन ग्रन्थोकी तुलना करते हुए स्वयं प्रस्तावनालेखकोने दोनोंमें 'पुष्कल साम्य'का होना स्वीकार किया १ ततश्चतुश्चत्वारिंशद्वृत्ता स्तुतिमसौ जगौ । कल्याणमन्दिरेत्यादिविख्याता जिनशासने ॥१४४॥ -वृद्धवादिप्रबन्ध पृ० १०१ ।
SR No.010449
Book TitlePuratan Jain Vakya Suchi 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1950
Total Pages519
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size33 MB
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