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पुरातन-जैनवाक्य-सूची है और दोनों आचार्योंकी ग्रन्थनिर्माणादि-विषयक प्रतिभाका कितना ही चित्रण किया है।
और भी अकलङ्क-विद्यानन्दादि कितने ही प्राचार्य ऐसे हैं जिनकी प्रतिभा इन ग्रन्थोके पीछे रहनेवाली प्रतिभासे कम नहीं है, तब प्रतिभाकी समानता ऐसी कोई बात नहीं रह जाती जिसकी अन्यत्र उपलब्धि न हो सके और इसलिये एकमात्र उसके आधारपर इन सब ग्रन्थोंको, जिनके प्रतिपादनमें परस्पर कितनी हो विभिन्नताएँ पाई जाती हैं, एक हो श्राचार्यकृत नहीं कहा जा सकता । जान पड़ता है समानप्रतिभाके उक्त लालचमे पड़कर ही विना किसी गहरी जाँच-पड़तालके इन सब ग्रन्थोंको एक ही आचार्यकृत मान लिया गया है, अथवा किसी साम्प्रदायिक मान्यताको प्रश्रय दिया गया है जबकि वस्तुस्थिति वैसी मालूम नहीं होती। गम्भीर गवेषणा और इन ग्रन्थोंकी अन्तःपरीक्षादिपरसे मुझे इस बातका पता चला है कि सन्मतिसूत्रके कर्ता सिद्धसेन अनेक द्वात्रिंशिकाओंके कर्ता सिद्धसेनसे भिन्न हैं। यदि २१वीं द्वात्रिंशिकाको छोड़कर शेष २० द्वात्रिंशिकाएँ एक ही सिद्धसेनकी कृतियाँ हों तो वे उनमेंसे किसी भी द्वात्रिंशिकाके कर्ता नहीं हैं, अन्यथा कुछ द्वात्रिंशिकाओके कर्ता हो सकते हैं । न्यायावतारके का सिद्धसेनकी भी ऐसी ही स्थिति है वे सन्मतिसूत्रके कर्ता सिद्धसेनसे जहाँ भिन्न हैं वहाँ कुछ द्वात्रिंशिकाओके कर्ता सिद्धसेनसे भी भिन्न हैं और उक्त २० द्वात्रिंशिकाएँ यदि एकसे अधिक सिद्धसेनोंकी कृतियाँ हों तो वे उनमेस कुछके कर्ता हो सकते हैं, अन्यथा किसीके भी कर्ता नही बन सकते। इस तरह सन्मतिमूत्रके कर्ता, न्यायावतारके कर्ता और कतिपय द्वात्रिंशिकाओंके कर्ता तीन सिद्धसेन अलग अलग है. शेष द्वात्रिशिकाओंके कर्ता इन्हींमेसे कोई ... एक या दो अथवा तीनो हो सकते हैं और यह भी हो सकता है कि किसी द्वात्रिंशिकाके कर्ता.... इन तीनोसे भिन्न कोई अन्य ही हो। इन तीनो सिद्धसेनोका अस्तित्वकाल एक दूसरेसे भिन्न. अथवा कुछ अन्तरालको लिये हुए है और उनमें प्रथम सिद्धसेन कतिपय द्वात्रिंशिकाओंके कर्ता, द्वितीय सिद्धसेन सन्मतिसूत्रके कर्ता और तृतीय सिद्धसेन न्यायावतारके कर्ता है। नीचे अपने | अनुसन्धान-विषयक इन्हीं सब बातोंको सक्षेपमें स्पष्ट करके बतलाया जाता है:
(१) सन्मतिसूत्रके द्वितीय काण्डमें केवलीके ज्ञान-दर्शन-उपयोगोकी क्रमवादिता और युगपद्वादितामे दोष दिखाते हुए अभेदवादिता अथवा एकोपयोगवादिताका स्थापन किया है। साथ ही ज्ञानावरण और दर्शनावरणका युगपत् क्षय मानते हुए भी यह बतलाया है कि दो उपयोग एक साथ कहीं नहीं होने और केवलीमे वे क्रमशः भी नहीं होते । इन ज्ञान और दर्शन उपयोगोका भेद मनःपर्ययज्ञान पर्यन्त अथवा छद्मस्थावस्था तक ही चलता है, केवलज्ञान होजानेपर दोनोंमे कोई भेद नही रहता-तब ज्ञान कहो अथवा दर्शन एक ही बात है, दोनोमे कोई विषय-भेद चरितार्थ नहीं होता। इसके लिये अथवा आगमग्रन्थोसे अपने इस कथनकी सगति विठलानेके लिये दर्शनकी 'अर्थविशेषरहित निराकार सामान्यग्रहणरूप' जो परिभाषा है उसे भी बदल कर रक्खा है अर्थात् यह प्रतिपादन किया है कि अस्पृष्ट तथा अविषयरूप पदार्थमे अनुमानज्ञानको छोड़कर जो ज्ञान होता है वह दर्शन है। इस विषयसे सम्बन्ध रखनेवाली कुछ गाथाएँ नमूनेके तौरपर इस प्रकार हैं:
मणपजवणाणतो माणस्स दरिसणस्स य विसेसो । केवलणाणं पुण दंसणं ति गाणं ति य समाण ॥३॥ केई भणंति 'जइया जाणइ तइया ण पासइ जियो ति । सुत्तमवलंबमाणा तित्थयरासायणाभीरू ॥४॥