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प्रस्तावना
'सद्दवियारो हूओ' नामकी गाथाका था, जिसमें कुन्दकुन्दने अपनेको भद्रबाहुका शिष्य सूचित किया है।
प्रथम प्रमाणको उपस्थित करते हुए मैंने बतलाया था कि यदि मोटे रूपसे गुणचन्द्रादि छह आचार्यों का समय १५० वर्प ही कल्पना किया जाय, जो उस समयकी आयुकायादिककी स्थितिको देखते हुए अधिक नहीं कहा जा सकता, तो कुन्दकुन्दके वशमें होने वाले गुणचन्द्रका समय शक सवत् २३८ (वि० स० ३७३) के लगभग ठहरता है। और -किराणचन्द्राचार्य कुन्दकुन्दके साक्षात् शिष्य या प्रशिष्य नहीं थे बल्कि कुन्दकुन्दके अन्वय
इए है और अन्वयके प्रतिष्ठित होने के लिये कमसे कम ५० वर्पका समय मान लेना __त नहीं है। ऐसी हालतमे कुन्दकुन्दका पिछला समय उक्त ताम्रपत्रपरसे २००
वर्प पूर्वका तो सहज ही मे हो जाता है । और इसलिये कहना होगा कि कुन्दइन्दाचार्य यतिवृपभसे २०० वर्ष मे भी अधिक पहले हुए हैं। और दूसरे प्रमाणमे गाथाको उपस्थित करते हुए लिखा था कि इस गाथामे बतलाया है कि 'जिनेन्द्रने-भगवान महावीरने-अर्थ रूपसे जो कथन किया है वह भांपासूत्रोंमे शब्द विकारको प्राप्त हुआ है-अनेक प्रकारके शब्दों में गूंथा गया है-, भद्रबाहुके मुझ शिष्यने उन भापासूत्रों परसे उसको उसी रूपमे जाना है और (जानकर) कथन किया है। इससे बोधपाहुडके कर्ता कुन्दकुन्दाचार्य भद्रबाहुके शिष्य मालूम होते हैं । और ये भद्रबाहु अ तकेवलोसे भिन्न द्वितीय भद्रबाहु जान पड़ते हैं, जिन्हें प्राचीन ग्रथकारोने 'आचाराङ्ग' नामक प्रथम अगके पारियोमे तृतीय विद्वान सूचित किया है और जिनका समय जैन कालगणनाओके अनुसार वीरनिर्वाण-सवत् ६१२ अर्थात् वि सं० १४२ (भद्रबाहु वि०के समाप्तिकाल) से पहले भले ही हो, परन्तु पीछेका मालूम नहीं होता । क्योंकि अ तकेवली भद्रबाहुके समयमे जिन-कथित श्र तमें ऐसा कोई विकार उपस्थित नहीं हुआ था, जिसे गाथाम 'सह वियारो हूओ भासासुत्तेसु ज जिणे कहिय' इन शब्दोद्वारा सूचित किया गया है-वह अविच्छिन्न चला आया था। परन्तु दूसरे भद्रबाहुके समयमे वह स्थिति नहीं रही थी-कितना ही श्र तज्ञान लुप्त हो चुका था और जो अवशिष्ट था वह अनेक भाषा-सूत्रोंमे परिवर्तित हो गया था । और इसलिये कुन्दकुन्दका समय विक्रमकी दूसरी शताब्दि तो हो सकता है परन्तु तीसरी या तीसरी शताब्दिके बादका वह किसी तरह भी नहीं बनता।'
परन्तु मेरे इस सब विवेचनको प्रेमीजीकी बद्धमूल हुई धारणाने कबूल नहीं किया, और इसलिये वे अपने उक्त ग्रन्थगत लेखमे मर्कराके ताम्रपत्रको कुन्दकुन्दके स्वनिघारित समय (शक स० ३८० के बाद) के माननेमे "सबसे बड़ी बाधा" स्वीकार करते हुए
और यह बतलाते हुए भी कि "तब कुन्दकुन्दको यतिवृपभके बाद मानना असंगत हो जाता है।" लिखते हैं
"पर इसका समाधान एक तरहसे हो सकता है और वह यह कि कौण्डकुन्दान्वयका अर्थ हमें कुन्दकुन्दकी वशपरम्परा न करके कोण्डकुन्दपुर नामक स्थानसे निकली हुई परम्परा करना चाहिये । जैसे श्रीपुर स्थानकी परम्परा श्रीपुरान्वय, अरुंगलकी अरुंगलान्वय, कित्तरकी कित्तरान्वय, मथुराकी माथुरान्वय आदि ।" १ सद्दवियारो हश्रो भासासुत्तेसु ज जिणे कहिय ।
सो तह कहिय णाय सीसेण य भद्दबाहुस्स ॥६१|| ६ जैन कालगणनाश्रीका विशेष जाननेके लिये देखो लेखकद्वारा लिखित 'स्वामी समन्तभद्र' (इतिहास)
का समय निर्णय' प्रकरण पृ० १८३ से तथा 'भ० महावीर और उनका समय' नामक पुस्तक पृ० ३१ से ।