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पुरातन-जैनवाक्य-सूची ज्ञान प्राप्त हुआ उसमे यतिवृषभकी चूणिका अन्तर्भाव भले ही न हो, फिर भी जिस द्वितीय सिद्धान्त कषायप्राभृतको कुन्दकुन्दने प्राप्त किया है उसके कर्ता गुणधर जब यतिवृषभके समकालीन अथवा २०-.५ वर्ष पहले हुए थे तव कुन्दकुन्द भी यतिवृषभके समसामयिक बल्कि कुछ पीछेके ही होंगे, क्योंकि उन्हें दोनो सिद्धान्तोंका ज्ञान 'गुरुपरिपाटीसे प्राप्त हुआ था । अर्थात् एक दो गुरु उनसे पहलेके और मानने होंगे।' और अन्तमे इन्द्रनन्दि श्र तावतारपर अपना आधार व्यक्त करते और उनके विषयमे अपनी श्रद्धाको कुछ ढीली करते हुए यहाँ तक लिख दिया है:-"गरज यह कि इन्द्रनन्दिके श्र तावतारके अनुसार पद्मनन्दि (कुन्दकुन्द) का समय यत्तिवृपभसे बहुत पहले नहीं जा सकता । अब यह बात दूसरी है कि इन्द्रनन्दिने जो इतिहास दिया है, वहा गलत हो और या ये पद्मनन्दि कुन्दकुन्दके बादके दूसरे ही आचार्य हो और जिस तरह कुन्दकुन्द कोण्डकुण्डपुरके थे उसी तरह पद्मनन्दि भी कोण्डकुण्डपुरके हो।"
(बादमे जब प्रेमीजीको जयघवलाका वह कथन पूरा मिल गया जिसका एक अश पुणो ताओ' से प्रारंभ करके मैने अपने उक्त लेखमे दिया था और जो अधिकाशमे ऊपर उद्धृत किया गया है तब ग्रंथ छप चुकनेपर उसके परिशिष्टमे आपने उस कथनको देते हुए स्पष्ट सूचित किया है कि "नागहस्ति और आर्यमंक्षु गुणधरके साक्षात् शिष्य नहीं थे।" परन्तु इस सत्यको स्वीकार करनेपर उनको उस दूसरी युक्तिका क्या रहेगा, इस विषयमें कोई सूचना नहीं की, जब कि करनी चाहिये थी । स्पष्ट है कि उनकी इस दूसरी युक्किमे तव कोई सार नहीं रहता और कुन्दकुन्द, विविध सिद्धान्तमें चूर्णिका अन्तर्भाव न होनसे, यतिवृषभसे बहुत पहलेके विद्वान भी हो सकते हैं।)
__अब रही प्रेमीजीकी तीसरी युक्तिकी बात, उसके विपयमे मैंने अपने उक्त लेखमे यह बतलाया था कि नियमसारकी उस गाथामें प्रयुक्त हुए 'लोयविभागेसु' पदका अभि• प्राय सर्वनन्दीके उक्त लोकविभागसे नहीं है और न हो सकता है, बल्कि बहुवचनान्त पद
होनेसे वह 'लोकविभाग' नामके किसी एक प्रथविशेषका भी वाचक नहीं है। वह तो लोकविभाग-विपयक कथन-वाले अनेक ग्रथों अथवा प्रकरणोंके संकेतको लिये हुए जान पड़ता है और उसमे खुन कुन्दकुन्दके 'लोयपाहुड'-'संठाणपाहड' जैसे ग्रंथ तथा दूसरे 'लोकानुयोग' अथवा लोकाऽलोकके विभागको लिये हुए करणानुयोग-सम्बन्धी ग्रंथ भी शामिल किये जा सकते हैं। और इसलिये 'लोयविभागेसु' इस पदका जो अर्थ कई शताब्दियो पीछेके टीकाकार पद्मप्रभने 'लोकविभागाभिधानपरमागमे ऐसा एकवचनान्त किया है वह ठोक नहीं है। साथ ही यह भी बतलाया था कि उपलब्ध लोकविभागमे, जो कि (उक्तंच वाक्योंको छोड़कर ) सर्वनन्दीके प्राकृत लोकविभागका ही अनुवादित संस्कृतरूप है, तिर्यंचोके उन चौदह भेदोके विस्तार-कथनका कोई पता भी नहीं, जिसका उल्लेख नियमसारकी उक्त गाथामें किया गया है। और इससे मेरा उक्त कथन अथवा स्पष्टीकरण
और भी ज्यादा पुष्ट होता है। इसके सिवाय, दो प्रमाण ऐसे उपस्थित किये थे, जिनकी मौजूदगीमे कुन्दकुन्दका समय शक स० ३८० (वि० सं० ५१५) के बादका किसी तरह भी नहीं हो सकता । उनमे एक प्रमाण मर्कराके ताम्रपत्रका था, जो शक सं० ३८८ का उत्कोण है और जिसमे देशीगणान्तर्गत कुन्दकुन्दकअन्वय (वंश) में होनेवाले गुणचन्द्रादि छह
आचार्यों का गुरु-शिष्यक्रमसे उल्लेख है । और दूसरा प्रमाण स्वयं कुन्दकुन्दके बोधपाहुडकी १ मेरे इस विवेचनसे, जो 'जैनजगत' वर्ष ८ अंक ६ के एक पूर्ववर्ती लेखमें प्रथमतः प्रकट हुआ था, डा० ए० एन० उपाध्ये एम० ए० ने प्रवचनमारकी प्रस्तावना (पृ० २२, २३) में अपनी पूर्ण सहमति व्यक्त की है।