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प्रत्तावना
११५ नहीं है, और इसलिये 'जिनईदेण' पदकी मौजूदगीमें उसपरसे ग्रंथकर्ताका नाम 'जिनचन्द्र' फलित नहीं किया जा सकता। ऐसी हालतमें जिनचन्द्र के सम्बन्धमे जो कल्पनाएँ की गई हैं, उनपर विचार करनेकी कोई जरूरत नहीं रहती। मेरे खयालमे जिणइंदका अर्थ जिनचन्द्र करनेमे संस्कृतटीकाकारादिकी उसी प्रकारकी भूल जान पडती है जिस प्रकारकी भूल परमात्मप्रकाशके टीकाकारादिकने 'जोइन्दु' का अर्थ 'योगीन्द्र' करनेमे की है और जिसका स्पष्टीकरण डा० उपाध्येने अपनी परमात्मप्रकाशकी प्रस्तावनामे किया है। वहाँ इन्दु' का अर्थ 'इन्द्र' किया गया है तो यहाँ 'इंद' का अर्थ 'इंदु'(चद्र) कर दिया गया है ।। अतः इस ग्रन्थके कर्ता 'जिनेन्द्र' का ठीक पता लगाना चाहिये कि वे किसके शिष्य अथवा गुरु थे, कब हुए हैं और उनके इस ग्रन्थके वाक्योंको कौन कौन ग्रन्थोंमें उद्धृत किया गया है।
६०. नन्दिसंघ-पट्टावली-इस पट्टावली मे १६ गाथाएँ हैं, जिनमेसे १७ तो पट्टावली-विपयकी हैं और शेप दो विक्रम राजाकी उत्पत्ति आदिसे सम्बन्ध रखती हैं, जिनके अनुसार विक्रमकाल वीरनिर्वाणसे ४७० वर्षके बाद प्रारम्भ होता है । इनमेसे किसी भी गाथामें संघ, गण, गच्छादिका कोई उल्लेख नहीं है । पट्टावलीकी आदिमे तीन पद्य संस्कृत भाषाके दिये हैं, जिनमे तीसरा पद्य बहुत कुछ स्खलित है, और उनके द्वारा इस प्राचीन पट्टावलीको मूलसघकी नन्दि-आम्नाय, बलात्कारगण और सरस्वतीगच्छके कुन्दकुन्दान्वयी गणाधिपों आचार्यो )के साथ सम्बद्ध किया गया है । वे तीनों पद्य, जिनके क्रमाङ्क भी गाथाओंसे अलग हैं, इस प्रकार हैं:
श्रीत्रैलोक्याधिपं नत्वा स्मृत्वा सद्गुरु-भारतीम् । वक्ष्ये पट्टावली रम्यां मूलसंघ-गणाधिपाम् ॥ १ ॥ श्रीमूलसघ-प्रवरे नन्द्याम्नाये मनोहरे । ' बलात्कार-गणोत्तंसे गच्छे सारस्वतीयके ॥२॥ कुन्दकुन्दान्वये श्रेष्ठं उत्पन्न श्रीगणाधिपम् ।
तमेवाऽत्र प्रवक्ष्यामि श्रयतां सज्जना जनाः ॥३॥ (इन पद्योंके अनन्तर पट्टापलीकी मूलगाथाओं का प्रारम्भ है और उनमे अन्तिम जिन(श्रीवीर भगवान)के निर्वाणके बाद क्रमशः होनेवाले तीन केलियों, पॉच श्रुतकेलियों, ग्यारह दशपूर्वधारियों पांच एकादशांगधारियो, चार दशांगादिके पाठियो और पांच एकागके धारियोंका, उनके अलग-अलग अस्तित्वकालके वर्षों-सहित नामोल्लेख किया है। साथ ही, प्रत्येक वर्ग के साधुओंका इकट्ठा काल भी दिया है, जैसे गौतमादि तीनों केवलियों का काल ६२ वर्ष, विष्णु-नन्दिमित्रादि पांचों श्र तकेवलियोंका उसके बादः १०० वर्ष अर्थात् वीरनिर्वाणसे ५६२ वर्ष पर्यन्त. तदनन्तर विशाखाचार्यादि ग्यारह दशपूर्वधारियोंका १८३ वर्ष, नक्षत्रादि पाँच एकादशांगधारियोंका १२३ वर्ष, सुभद्रादि चार दशगादिकधारियों का ६७ वर्ष और अहवाल आदि पाच एकागधारियोंका काल ११८ वर्प। इस तरह वीरनिर्वाणसे ६८३ वर्ष तकके अर्सेमे होनेवाले केवलियों, श्र तकेलियों और अगपूर्वके पाठियों की यह पट्टावली है । उस वक्त तक दिगम्बर सम्प्रदायमें कोई खास संघ-भेद नहीं हुआ था,
और इलिये बादको होनेवाले नन्दि-सेनादि सभी सघो और गण-गच्छोंके द्वारा यह पूर्वकी पट्टावती अपनाई जा सकती है। तदनुसार ही यह नन्दिसंघके द्वारा अपनाई गई है और इसीसे इसको नन्दिसघ (बलात्कारगण सरस्वतीगच्छ)की पट्टावली कहा जाता है । यह
पावली प्रत्येक आचार्य के अलग-अलग समयके निर्देशादिकी दृष्टिसे अपना खास महत्व \१ देखो, जैन सिद्धान्तभास्कर, भाग १ किरण ४ पृ० ७१ ।