SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 134
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ११६ पुरातन-जैनवाक्य-सूची रखती है। इस पट्टावलीमें वर्णित ६८३ वर्षकी यह संख्या किसी भी अंग-पूर्वादिके पूर्णतः पाठियोंके लिये दिगम्बरसमाज में रूढ है, इसमे कहीं कोई विरोध नहीं पाया जाता। आंशिक रूपसे अंग-पूर्वादिके पाठी इन ६८३ वर्षो मे भी हुए हैं और इनके बाद भी हुए हैं। ६१. सावयधम्मदोहा-यह २२४ दोहोमे वर्णित श्रावकाचार-विषयका अच्छा ग्रंथ है, जिसे देहली आकिकी कुछ प्रतियोंमे 'श्रावकाचारदोहक' भी लिखा है और कुछ प्रतियों में 'उपासकाचार' जैसे नामोसे भी उल्लेखित किया है । मूल के प्रतिज्ञावाक्यमें 'अक्वमिसावयधम्मु' वाक्यक द्वारा इसका नाम श्रावकधर्म' सूचित किया। दोहाबद्ध होनेसे अनेक प्रतियोंमें दोहाबद्ध दोहक तथा दोहकसूत्र-जैसे विशेपणोंको भी साथमे लगाया गया है। इसके कर्ताका मूलपरसे कोई पता नहीं चलता। अनेक प्रतियोंके अन्तमे कविषयक विभिन्न सूचनाएँ पाई जाती हैं-किसीमे जोगेन्दु तथा योगीन्द्रको, किसीमे लक्ष्मीचन्द्रको और किसीमें देवसेनको कर्ता बतलाया है।भाण्डारकर ओरियंटल रिसर्च इन्स्टिट्य ट पूनाकी एक सटीक । प्रतिमें यहाँ तक लिखा है कि "मूलं योगीन्द्रदेवस्य लक्ष्मीचन्द्रस्य पंजिका" अर्थात् मूलग्रंथ योगीन्द्रदेवका और उसपर पजिका लक्ष्मीचन्द्रकी है। इन सब बातोंकी चर्चा और उनका ऊहापोह प्रो० हीरालालजी एम० ए० ने अपनी भूमिका में किया है और देवसेनके भावसंग्रहकी गाथाओं नं० ३५० से ५६६ तकके साथ तुलना करके यह मालूम किया है कि दोनोंमे बहुत कुछ सादृश्य है और उसपरसे उन्हीं देवसेनको ग्रंथका कर्ता ठहराया है जिन्होंने विक्रम संवत् ६६० में अपने दूसरे ग्रंथ दर्शनसारको बनाकर समाप्त किया है। और इस तरह इस प्रथको १०वीं शताब्दीकी रचना सूचित किया है। परन्तु मेरी रायमे यह विपय अभी और भी विचारणीय है । शायद इसीसे प्रो० साहबने भी टाइटिल आदिपर प्रथनामके साथ उसके कर्ताका नाम निश्चित रूपमे प्रकट करना उचित नहीं समझा। अस्तु । यह ग्रंथ अपभ्रंश भापाका है। इसमे श्रावकीय प्रतिमाओं तथा व्रतादिकोंका वर्णन करते हुए एक स्थानपर लिखा है : एहुं धम्मु जो आयरइ वंभण सुदु वि कोइ । सो सावउ किं सावयहँ अण्णु कि सिरि मणि होइ ।। ७६ ॥ इसमे श्रावकका लक्षण बतलाते हुए कहा है कि-'इस धर्मका जो आचरण करता है, चाहे वह ब्राह्मण या शूद्र कोई भी हो, वही श्रावक है श्रावकके निरपर और क्या कोई मणि होता है ? अर्थात् श्रावकधर्मके पालनके सिवाय श्रावकको पहचानका और कोई चिन्ह नहीं है और श्रावकधर्मके पालनका सबको अधिकार है-उसमे कोई भी जाति-भेद बाधक ६२. पाहडदाहा-यह २२० पद्योंका ग्रंथ है, जिसमें अधिकांश दोहे ही हैंकुछ गाथा आदि दूसरे छंद भी पाये जाते हैं, और दो तीन पद्य संस्कृतके भो हैं । इसका विपय योगीन्दुके परमात्मप्रकाश तथा योगसारकी तरह प्रायः अध्यात्मविषयसे सम्बन्ध रखता है। दोनोंकी शैली-सरणि तथा उक्तियोंको भी इसमे अपनाया गया है. इतना ही नहीं बल्कि ५० के करीब दोहे इसमे ऐसे भी हैं जो परमात्मप्रकाशके साथ प्रायः एकता रखते हैं और कुछ ऐसे भी हैं जो योगसारके साथ समानभावको प्राप्त हैं। शायद इस समानताक कारण ही एक प्रतिमे। इसे 'योगीन्द्रदेवविरचित' लिख दिया है। परन्तु यह ग्रंथ रामसिंहमुनिकृत है. जैसा कि २०६वे पद्य मे प्रयुक्त 'रामसीहु मुणि इम भणइ' जैसे वाक्य से प्रकट है . १ यह प्रति डा० ए० एन० उराध्ये एम० ए० के पास एक गुटके में है ।-देखो, 'अनेकान्त' वर्ष १, कि० --६-१०, पृ० ५४५ । २ अणुपेहा बारह वि जिया भविवि एक्कविणेण । रामसीहु मुणि इम भणइ सिवपुर पावहि जेण ॥ २०६ ॥
SR No.010449
Book TitlePuratan Jain Vakya Suchi 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1950
Total Pages519
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size33 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy