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प्रस्तावना
६६ प्रन्थकी गाथासंख्या २६१ है और जिस मरणकंडिकाके उपयोगका इसमे स्पष्ट उल्लेख है उसकी अधिकांश गाथाएं इसमें ज्यों-की-त्यों देखी जाती हैं, शेषके विपयमें कुछ नहीं कहा जा सकता; क्योकि मरणकण्डिका अधूरी ही उपलब्ध है और इसीसे उसके रचयिताका नाम भी मालूम नहीं होता-वहु मरणविषयपर अच्छा प्राचीन एवं विस्तृत प्रन्थ जान पड़ता है। मरणकंडिकाके अतिरिक्त और भी रिष्टविषयक कुछ ग्रन्थोके वाक्योंका शब्दशः अथवा अर्थश. सग्रह इसमे होना चाहिये; क्योंकि ग्रन्थकारने 'रइयं बहुसत्थत्थं उवजीवित्ता' । इस वाक्यके द्वारा स्वय उसकी सूचना की है और तभी यह संग्रहप्रन्थ तीन दिनमें तय्यार हो सका है, जो अपने विषयका एक अच्छा उपयोगी संकलन है । यह ग्रन्थ हालमें उक्त डा. गोपाणीके द्वारा सम्पादित होकर सिघी-जैनग्रन्थमालामे बम्बईसे अंग्रेजी अनुवादादिके साथ प्रकाशित हुआ है। मेरा विचार कई वर्ष पहलेसे इस ग्रन्थको, और भी कुछ प्रकरणो। सहित 'मत्युविज्ञान के रूपमें हिन्दी अनुवादादिके साथ वीरसेवामन्दिरसे प्रकट करनेका था. चुनॉचे वीरसेवामन्दिर ग्रन्थमालाके प्रथम ग्रन्थ 'समाधितंत्र' में, अन्धमालामें प्रकाशित होनेवाले ग्रन्थोकी सूची देते हुए, इसके भी नामका उल्लेख किया गया था; परन्तु अभी तक इस कामको हाथमे लेनेका यथेष्ट रूपसे अवसर ही नहीं मिल सका । अस्तु ।
___ यहाँ पर मैं इतना और बतला देना चाहता हूँ कि इस ग्रन्थकारके रचे हुए दो ग्रन्थ और भी हैं-एक 'अर्घकाण्ड' और दूसरा मंत्रमहोदधि' । अर्घकाण्ड उपलब्ध है। उसकी गाथासंख्या १४६ है और वह वस्तुओंकी मंदी-तेजी जाननेके विज्ञानको लिये हुए । एक अच्छा महत्वका ग्रन्थ है। वाक्य-सूचोके समय यह अपनेको उपलब्ध नहीं हुआ था, इसीसे वाक्यसूचीमे शामिल नहीं हो सका । मत्रमहोदधिका उल्लेख वृहटिप्पणिका' में "मंत्रमहोदधिः प्रा. दिगंबर श्रीदुर्गदेव कृतः म० गा० ३६" इस रूपसे मिलता है और इसपरसे उसकी गाथासंख्या ३६ जानी जाती है । यह ग्रन्थ अभी तक उपलब्ध नहीं हुआ। इसकी खोज होनेकी जरूरत है।
४८. वसुनन्दि-श्रावकाचार-यह वसुनन्दि आचार्यकी कृति-रूप श्रावकाचारविपयका एक प्रसिद्ध ग्रन्थ है, जिसमे दर्शनादि ११ प्रतिमाओंके क्रमसे आचारादि-विषयका निरूपण किया है। मुद्रित प्रतिके अनुसार इसकी गाथासंख्या ५४८ है और श्लोककी दृष्टिसे इसका परिमाण अन्तकी गाथामे ६५० दिया है। ग्रन्थकी दूसरी गाथामे 'सावयधम्म परवेमो' इस प्रतिज्ञाके द्वारा ग्रन्थनाम श्रावकधर्म (श्रावकाचार) सूचित किया है और अन्तकी ५४६ वी गाथामे 'रइयं भवियाणमुवासयज्झयणं' इस वाक्यके द्वारा उसे 'उपासकाध्ययन' नाम दिया है। आशय दोनोंका एक ही है-चाहे 'उपासकाध्ययन' कहो और चाहे 'श्रावकाचार।
इस ग्रन्थके अन्तमे वसुनन्दीने अपनी गुरुपरम्पराका जो उल्लेख किया है उससे मालूम होता है कि श्रीकुन्दकुन्दाचार्यकी वश-परम्परामे श्रीनन्दी नामके एक बहुत ही यशस्वी, गुणी एव सिद्धातशास्त्रके पारगामो आचार्य हुए हैं। उनके शिष्य नयनन्दी भी वैसे ही प्रख्यातकीर्ति, गुणशाली और सिद्धान्तके पारगामी थे । नयनन्दीके शिप्य नेमिचन्द्र थे. जो जिनागमसमुद्रकी वेलातरंगोंसे धूयमान और सकल जगतमे विख्यात थे। उन्हीं नेमिचन्द्र के शिष्य वसुनन्दीने, अपने गुरुके प्रसादसे, आचार्यपरम्परासे चले आए हुए श्रावकाचारको इस ग्रन्थमे निवद्ध किया है । यह ग्रन्थ अभी तक बहुत कुछ अशुद्ध रूपमे प्रकाशित हुआ है, इसकी एक अच्छी शुद्ध प्रति देहलीके शास्त्रभण्डारमे मौजूद है। उसपरसे तथा और भी शुद्ध प्रतियोका उपयोग करके इसका एक अच्छा शुद्ध सस्करण प्रकाशित होना चाहिये। १ जैनसाहित्यसशोधक प्रथमखण्ड अक ४, पृ० १५७ ।