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प्रस्तावना
१२५ पण ठीक घटित होता है, जिसमे उसे अमतका अर्थात् भवदु खके अभावरूप अविनाशी मोक्ष का प्रदान करनेवाला बतलाया है; क्योंकि वह सुख अथवा भवदुःखविनाश मिथ्योदर्शनोंसे प्राप्त नहीं होता, इसे हम ५१वीं गाथासे जान चुके हैं। तीसरे विशेषणके द्वारा यह सुझाया गया है कि जो लोग ससारके दुःखों-क्लेशोंसे उद्विग्न होकर सवेगको प्राप्त हुए हैं-सच्चे मुमुक्षु बने हैं-उनके लिये जनदर्शन अथवा जिनशासन सुखसे समझमे आने योग्य है कोई कठिन नहीं है। इससे पहले ६४वीं गाथामे 'अत्थगई उण णयवायगहणलीणा दुरभिगम्मा' वाक्यके द्वारा सूत्रोकी जिस अर्थगतिको नयवादके गहन-वनमे लीन और दुरभिगम्य बतलाया था उसीको ऐसे अधिकारियोके लिये यहाँ सुगम घोषित किया गया है, यह सेब अनेकान्तदृष्टिकी महिमा है। अपने ऐसे गुणों के कारण ही जिनवचन भगवत्पदको प्राप्त
ग्रंथको अन्तिम गाथामे जिस प्रकार जिनशासनका स्मरण किया गया है उसी प्रकार वह आदिम गाथामें भी किया गया है । आदिम गाथामे किन विशेपणोंके साथ स्मरण किया गया है यह भी पाठकोके जानने योग्य है और इसलिये उस गाथाको भी यहाँ उद्धृत किया जाता है
सिद्ध सिद्धत्थाणं ठाणमणोवमसुहं उवगयाणं ।
कुसमय-विसासणं सासणं जिणाणं भव-जिणाणं ॥१॥ इसमे भवको जीतनेवाले जिनों-अर्हन्तोंके शासन-आगमके चार विशेषण दिये गये हैं-१ सिद्ध, २ सिद्धार्थों का स्थान, ३ शरणागतोंके लिये अनुपम सुखस्वरूप, ४ कुसमयोंएकान्तवादरूप मिथ्यामतोंका निवारक (प्रथम विशेषणके द्वारा यह प्रकट किया गया है है कि जैनशासन अपने ही गुणोंसे आप प्रतिष्ठित है। उसके द्वारा प्रतिपादित सब पदार्थ प्रमाणसिद्ध हैं-कल्पित नहीं हैं-यह दूसरे विशेषणका अभिप्राय है और वह प्रथम विशेषण सिद्धत्वका प्रधान कारण भी है। तीसरा विशेषण बहुत कुछ स्पष्ट है और उसके द्वारा यह प्रतिपादित किया गया है कि जो लोग वास्तवमे जैनशासनका आश्रय लेते हैं उन्हें अनुपम मोक्ष-सुख तककी प्राप्ति होती है। चौथा विशेपण यह बतलाता है कि जैनशासन उन सब कुशासनों-मिथ्यादर्शनोंके गर्वको चूर-चूर करनेकी शक्ति से सम्पन्न है जो सर्वथा एकान्तवादका आश्रय लेकर शासनारूढ बने हुए हैं और मिथ्यातत्त्वोंके प्ररूपण-वारा जगतमें दुःखोंका जाल फैलाये हुए हैं।
इस तरह आदि-अन्तकी दोनो गाथाओंमे जिनशासन अथवा जिनवचन (जैनागम) के लिये जिन विशेपणोंका प्रयोग किया गया है उनसे इस शासन (दर्शन) का असाधारण महत्त्व और माहात्म्य ख्यापित होता है। और यह केवल कहनेकी ही बात नहीं है बल्कि सारे प्रथमे इसे प्रदर्शित करके बतलाया गया है। स्वामी समन्तभद्रके शब्दोंमे 'अज्ञान-अन्धकारकी व्याप्ति (प्रसार) को जैसे भी बने दूर करके जिनशासनके माहात्म्यको जो प्रकाशित करना है उसीका नाम प्रभावना है । यह ग्रंथ अपने विपय-वर्णन और विवेचनादिके द्वारा इस प्रभावनाका बहुत कुछ साधक है और इसीलिये इसकी भी गणना प्रभावक-ग्रंथोंमे की गई है। यह प्रथ जैनदर्शनका अध्ययन करनेवालो और जनदर्शनसे जैनेतर दर्शनोके भेद को ठीक अनुभव करनेकी इच्छा रखनेवालों के लिये बड़े कामकी चीज़ है और उनके द्वारा खास मनोयोगके साथ पढे जाने तथा मनन किये जानेके योग्य है । इसमे अनेकान्तके अगस्वरूप जिस नयवादकी प्रमुख चर्चा है और जिसे एक प्रकारसे 'दुरभिगम्य गहन-वन' बत
'V" "ज्ञान-तिमिर-व्याप्तिमपाकृत्य यथायथम् ।
जिन-शासन-माहात्म्य-प्रकाशः स्यात्प्रभावना ॥ १८॥"-रत्नकरण्डश्रा० ।