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पुरातन जैनवाक्य सूची
" मुहतलसमासश्रद्ध उस्सेधगुणं गुणं च येधेण । घणगणिदं जाज्जो बेतास संठिए खेत्ते ॥ १ ॥ मूलं मज्मेण गुणं मुहजहिदद्धमुस्सेधकदिगुणिदं । घणगणिदं जाज्जो मुइंगसंठाणखेत्तम्मि ॥ २ ॥" - ववला, क्षेत्रानुयोगद्वार पृ० २० राजवार्तिक के दूसरे उल्लेखपरसे उपमालोकका परिमाण ३४३ वनराज तो फलित होता है; क्योकि जग गीका प्रमाण ७ राजु है और ७ का घन ३४३ होता है । यह उपमालोक है परन्तु इसपर से पाँच द्रव्यों के आधारभूत लोकका आकार आठों दिशाओमे उक्त क्रमसे घटता-बढ़ता हुआ 'गोल' फलित नहीं होता ।
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"वीरसेनस्वामी के सामने राजवार्तिक आदिमे बतलाये गये आकार के विरुद्व लोकके आकारको सिद्ध करनेके लिये केवल उपर्युक्त दो गाथाएँ ही थीं । इन्हीं के आधार से वे लोकके आकारको भिन्न प्रकार से सिद्ध कर सके तथा यह भी कहने समर्थ हुए कि 'जिन' प्रथोमे लोकका प्रमाण अघोलोकके मूल मे सात राजु, मध्यलोकके पास एक राजु, ब्रह्मस्वर्गके पास पॉच राजु प्रोर लोकाग्र मे एक राजु बतलाया है वह वहाँ पूर्व और पश्चिम दिशा की अपेक्षा से बतलाया है । उत्तर और दक्षिण दिशा की ओर से नहीं । इन दोनों दिशाओ की अपेक्षा तो लोकका प्रमाण सर्वत्र सात राजु है । यद्यपि इसका विधान करणानुयोगके प्रथोमे नहीं है तो भी वहाँ निषेध भी नहीं है अतः लोकको उत्तर और दक्षिणमे सर्वत्र सात राजु मानना चाहिये ।
वर्तमान तिलोय्पण्णत्तीमे निम्न तीन गाथाएँ भिन्न स्थलोंपर पाई जाती हैं, जो वीरसेन स्वामीके उस मतका अनुसरण करती है जिसे उन्होंने 'मुद्दतलसमास' इत्यादि गाथाओ और युक्तिपर से स्थिर किया है
"जगसेढिघणपमाणो लोयायासो स पंचदव्यरिदी | एस तारांतलोयायामस्स बहुमके ॥ ६१ ॥ सयलो एस य लोओ पिणो सेढिविंदमाखेण । तिवियप्पो णादव्वो हेहिममज्झिमउड्ढभेण ॥ १३६ ॥” सेढिपमाणायामं भागेसु दक्खिणुत्तरेसु पुढं ।
पुव्वावरे वासं भूमिमुहे सत्त एक पंचक्का ॥ १४६ ॥
इन पाँच द्रव्योंसे व्याप्त लोकाकाशको जगश्रेणी के घनप्रमाण बतलाया है । साथ ही, “लोकका प्रमाण दक्षिण-उत्तर दिशा मे सर्वत्र जग गी जितना अर्थात् सात राजु और पूर्व-पश्चिम दिशामें अधोलोकके पास सात राजु, मध्यलोक के पास एक राजु, ब्रह्मलोक के पास पॉच राजु और लोकाग्रमे एक राजु है" ऐसा सूचित किया है । इसके सिवाय, तिलोयपण्णत्तीका पहला महाधिकार सामान्यलोक, अघोलोक व ऊर्ध्वलोकके विविध प्रकार से निकाले गए घनफलों/से भरा पड़ा है जिससे वीरसेन स्वमीकी मान्यताकी ही पुष्टि होती है । तिलोय' 'ण च तइयाए गाहाए सह विरोहो, एत्थ वि दोसु दिवासु चउत्रिहविक्खंभदंसणादो ।'
क्षेत्रानुयोगद्वार पृ० २१ ।
- घवला,
'च सत्तरज्जुवाल्लं करणाणि श्रोगमुक्त विरुद्धं तत्थ विधिप्पडिसेधाभावादो ।'
"
- धवला, क्षेत्रानुयोगद्वार पृ० २२ ।
- देखो, तिलोयपण्यत्तिके पहले अधिकारकी गाथाएँ २१५ से २५१ तक |