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प्रस्तावना
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ध्यान नहीं दिया और वे वैसे ही अपनी किसी धुन अथवा धारणा के पीछे युक्तियों को तोड़मरोड़ कर अपने अनूकूल बनाने के प्रयत्नमें समाधान करने बैठ गये हैं ।
ऊपरके इस सब विवेचनपर से स्पष्ट है कि प्रेमीजी के इस कथन के पीछे कोई युक्तिबल नहीं है कि कुन्दकुन्द यतिवृपभके बाद अथवा सम-सामयिक हुए हैं। उनका जो खास आधार आर्यमक्षु और नागहस्तिका गुणधराचार्य के साक्षात् शिष्य होना था वह स्थिर नहीं रह सका - प्रायः उसीको मूलाधार मानकर और नियमसारकी उक्त गाथामें सर्वनन्दीके लोकविभागकी आशा लगाकर वे दूसरे प्रमाणों को खींच-तानद्वारा अपने सहायक बनाना चाहते थे, और वह कार्य भी नहीं हो सका । प्रत्युत इसके ऊपर जो प्रमाण दिये गए हैं उन परसे यह भले प्रकार फलित होता है कि कुन्दकुन्दका समय विक्रमकी दूसरी शताब्दि तक तो हो सकता है - उसके बादका नहीं, और इसलिये छठी शताब्दीमे होनेवाले यतिवृपभ उनसे कई शताब्दी वाद हुए हैं ।
(ग) नई विचारधारा और उसकी जाँच
अब 'तिलोयपण्णत्ती' के सम्बन्ध मे एक नई विचारधाराको सामने रखकर उसपर विचार एवं जाँचका कार्य किया जाता है । यह विचार धारा पं० फूलचन्दजी शास्त्रीने अपने 'वर्तमान तिलोय पणत्ति और उसके रचनाकाल आदिका विचार' नामक लेखमें प्रस्तुत की है, जो जैनसिद्धान्तभास्कर भाग ११ की किरण १ मे प्रकाशित हुआ है । शास्त्रीजी के विचारानुसार वर्तमान तिलोयपण्णत्ती विक्रमकी ६ वीं शताब्दी अथवा शक सं० ७३८ वि० सं० ८७३) से पहलेकी बनी हुई नहीं है और उसके कर्ता भी यतिवृषभ नहीं हैं । अपने इस विचार के समर्थन मे आपने जो प्रमाण प्रस्तुत किये हैं उनका सार निम्न प्रकार है । इस सारको देनेमे इस बातका खास खयाल रक्खा गया है कि जहाँ तक भी हो सके शास्त्रीजीका युक्तिवाद अधिकसे अधिक उन्हीं के शब्दोंमे रहे :
(१) 'वर्तमान मे लोकको उत्तर और दक्षिणमें जो सर्वत्र सात राजु मानते हैं उसकी स्थापना धवला के कर्ता वीरसेन स्वामीने की है— वीरसेन स्वामी से पहले वैसी मान्यता नहीं थी । वीरसेन स्वामीके समय तक जैन आचार्य उपमालोकसे पाँच द्रव्योंके आधारभूत लोक को भिन्न मानते थे । जैसा कि राजवार्तिकके निम्न दो उल्लेखों से प्रकट है :
A
" अ: लोकमूले दिग्विदिक्षु विष्कम्भः सप्तरज्जवः, तिर्यग्लोके रज्जुरेका, ब्रह्मलोके पंच, पुनर्लोका रज्जुरेका । मध्यलोकादधो रज्जुमवगाह्य शर्करान्ते श्रष्टास्वपि दिग्विदिक्षु विष्कम्भः रज्जुरेका रज्ज्वाश्च पटू सप्तभागाः ।” - ( ० १ सू० २० टीका) “ततोऽसंख्यान् खण्डानपनीयासंख्येयमेकं भागं बुद्धया विरलीकृत्य एकैकस्मिन घनाडूगुलं दत्वा परस्परेण गुणिता जगच्छ रेणी सापरया जगच्छ ऐया अभ्यस्ता प्रतरलोकः । स एवापरया जगच्छ या सर्वार्गितो घनलोकः ।" - (अ० ३० सू० ३८ टीका)
इनमे से प्रथम उल्लेख परसे लोक आठों दिशाओं में समान परिमाणको लिये हुए होनेसे गोल हुआ और उसका परिमाण भी उपमालोकके प्रमाणानुसार ३४३ घनराजु नहीं बैठता, जब कि वीरसेनका लोक चौकौर हैं, वह पूर्व पश्चिम दिशा में ही उक्त क्रमसे घटता हैं दक्षिण-उत्तर दिशामे नहीं इन दोनों दिशाओ मे वह सर्वत्र सात राजु बना रहता है । और इसलिये उसका परिमाण उपमालोक के अनुसार ही ३४३ घनराजु बैठता हैं और वह प्रमाणमें पेश की हुई निम्न दो गाथाओंपरसे, उक्त आकार के साथ भले प्रकार फलित होता है :