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प्रस्तावना
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में विभक्त किया है और वे अधिकार हैं १ जीवस्वरूप, २ प्रकृति समुत्कीर्तन, ३ कर्मस्तव, ४ शतक और ५ सप्ततिका । ग्रंथकी गाथासंख्या १५०० के लगभग है-किसी किसी प्रति 1 कुछ गाथाएं कम - बढ़ती भी पाई जाती हैं, इससे अभी निश्चित गाथासंख्याका निर्देश नहीं किया जा सकता | गाथाओ के अतिरिक्त कहीं कहीं कुछ गद्य-भाग भी पाया जाता है। ग्रंथकी जो दो चार प्रतियाँ देखने मे आई उनमेसे किसीपर से भी ग्रंथकर्ताका नाम उपलब्ध नहीं होता और न रचनाकाल ही पाया जाता है। और इससे यह समस्या अभी तक खड़ी ही चली जाती है कि इस ग्रंथ के कर्ता कौन आचार्य है और कब यह ग्रंथ बना है ? ग्रंथपर सुमतिकीर्तिकी संस्कृत टीका और किसीका संस्कृत टिप्पण भी उपलब्ध है, परन्तु उनपर से भी इस विषय मे कोई सहायता नहीं मिलती ।
प० परमानन्दजी शास्त्रीने इस ग्रंथका प्रथम परिचय अनेकान्तके तृतीय वर्षकी तीसरी किरण में 'अतिप्राचीन प्राकृत पंचसंग्रह' नामसे प्रकाशित कराया है । यह परिचय जिस प्रतिके आधारपर लिखा गया है वह बम्बईके ऐलकपन्नालाल - सरस्वती-भवनकी ६२ पत्रात्मक प्रति है', जो माघ वदी ३ गुरुवार संवत् १५२७ की टंबकनगरकी लिखी हुई है । इस परिचयमे चौथे-पाँचवें अधिकारकी निम्न दो गाथाओको उद्घृत करके बतलाया है कि "ग्रंथकी अधिकांश रचना दृष्टिवादनामक १२वें अंगसे सार लेकर और उसकी कुछ गाथाओ को भी उद्धृत करके की गई है ।" और इस तरह ग्रंथकी अतिप्राचीनताको घोषित किया है :
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सुग्रह इह जीव- गुणसन्निहीसु ठाणेसु सारजुत्ताओ । वोच्छं कदिवइयाश्रो गाहाओ दिट्टिवादाओ ॥ ४-३ ॥ सिद्धपदेहिं महत्थं बंधोदय- सत्त- पयडि-ठाणाणि । वोच्छ पुण संखेषेण णिस्सदं दिट्टिवादा
॥ ५-२॥
साथ ही, कुछ गाथाओं की तुलना करते हुए यह भी बतलाया है कि वीरसेनाचार्य की घवला टीकामे जो सैकड़ों गाथाएँ 'उक्त' च' आदि रूपसे उधृत पाई जाती हैं । वे तो प्रायः इसी (ग्रन्थ) परसे उधृत जान पड़ती हैं। उनमें से जिन १०० गाथाओं को प्रो० हीरालालजीने, धवलाके सत्प्ररूपणा-विषयक प्रथम अंशकी प्रस्तावना में, धवलापरसे गोम्मटसार मे संग्रह किया जाना लिखा है वे गाथाऍ गोम्मटसार में तो कुछ पाठभेदके साथ भी उपलब्ध होती हैं परन्तु पंचसंग्रह में प्रायः ज्योंकी त्यों पाई जाती हैं ।' और इस परसे फिर यह फलित किया है कि 'आचार्य वीरसेनके सामने 'पंचसग्रह' जरूर था, इसी से उन्होंने उसकी उक्त गाथाओं को अपने ग्रन्थ (धवला ) मे उद्धृत किया है । आचार्य वीरसेनने अपनी 'धवला टीका शक संवत् ७३८ (वि० सं० ८७३) मे पूर्ण की है। अतः यह निश्चित है कि पचसग्रह इससे पहलेका बना हुआ है ।" परन्तु यह फलितार्थ अपने औचित्य के लिये कुछ अधिक प्रमाणकी आवश्यकता रखता है- कमसे कम जब तक धवलामे एक जगह भी किसी गाथाके उद्धरणके साथ पंचसंग्रहका स्पष्ट नामोल्लेख न बतला दिया जाय तब तक मात्र गाथाओंकी समानतापरसे यह नहीं कहा जा सकता कि घवलामे वे गाथाएँ इसी पचसंग्रह ग्रन्थपर से उधृत की गई हैं, जो खुद भी एक सग्रह ग्रन्थ है । हो सकता है कि घवला परसे ही वे गाथाएँ पंचसंग्रहमें उसी प्रकार सग्रह की गई हो जिस प्रकार कि गोम्मटसार मे बहुत-सी गाथाएँ सग्रहीत पाई जाती हैं। साथ ही, यह भी हो सकता है कि पचसंग्रहपरसे ही घवलामें उनको उद्धृत किया गया हो । इसके सिवाय, यह १ ग्रन्थकी दूसरी प्रतिया जयपुर श्रामेर, नागौर आदि के शास्तभण्डारों में पाई जाती है ।
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