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पुरातन जैनवाक्य-सूची
भी संभव है कि धवलामें वे किसी दूसरे ही प्राचीन ग्रन्थपर से उद्धृत की गई हों और उसी परसे पंचसंग्रहकारने भी उन्हें स्वतंत्रतापूर्वक अपनाया हो। और इस तरह विशेष प्रमाणके अभावमे पंचसंग्रह घवलासे पूर्ववर्ती तथा पञ्चाद्वर्ती दोनों ही हो सकता है ।
इसी तरह पंचसंग्रहमें "पुढं सुइ सद्दं पुट्ट पुरा पस्सदे रूवं, फासं रसं च गंध बद्धं पुट्ठ ं वियागादि" इस गाथाको देखकर और तत्त्वार्थ सूत्र ९, १६की 'सर्वार्थसिद्धि' वृत्ति में उसे उद्धृत पाकर यह जो नतीजा निकाला गया है कि "विक्रमकी छठी शताब्दीक पूर्वार्ध के विद्वान आचार्य देवनन्दी ( पूज्यपाद) ने अपनी सर्वार्थसिद्धि में आगमसे चक्षुइन्द्रियको अप्राप्यकारी सिद्ध करते हुए पंचसंग्रहकी यह गाथा उद्घृत की है, जिससे स्पष्ट है कि पंचसंग्रह पूज्यपादसे पहलेका बना हुआ है" वह भी अपने औचित्य के लिये विशेष प्रमाणकी आवश्यकता रखता है, क्योंकि सर्वार्थसिद्धि में उक्त गाथाको उद्घृत करते हुए 'पंचसंग्रह' का कोई नामोल्लेख नहीं किया गया है, बल्कि स्पष्ट रूपमे "आगमतस्तावत्" इस वाक्य के साथ उसे उद्धृत किया है और इससे बहुत संभव है कि मौलिक कृतिरूप में रचे गये किसी स्वतंत्र आगम ग्रन्थकी ही उक्त गाथा दो और वहीं परसे उसे सर्वार्थ सिद्धिमें उद्धृत किया गया हो, न कि किसी संग्रहग्रन्थपरसे । साथ ही, यह भी संभव है कि सर्वार्थसिद्धिपरसे ही उक्त गाथाको पंचसंग्रह में अपनाया गया हो अथवा उस आगम ग्रन्थ परसे सीधा अपनाया गया हो जिसपरसे वह सर्वार्थसिद्धिमें उद्धृत हुई है। और इसलिये सर्वार्थसिद्धि में उक्त गाथाके उद्घृत होने मात्रसे यह लाजिमी नतीजा नहीं निकाला जा सकता कि ‘पंचसंग्रह' सर्वार्थसिद्धिसे पहलेका बना हुआ है । वह नतीजा तभी निकाला जा सकता है जब पहले यह साबित ( सिद्ध ) हो जाय कि उक्त गाथा पंचसंग्रहकारकी ही मौलिक कृति है - दूसरी गाथाओं की तरह अन्यत्र से ग्रंथमे संगृहीत नहीं है ।
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ग्रंथके प्रथम अधिकार में दर्शनमोहकी उपशमना और क्षपणा-विषयक तीन गाथाएँ ऐसी संगृहीत हैं जो श्रीगुणधराचार्य के कषायपाहुड । कषायप्राभृत ) में नं० ६१, १०६, १०६ पर पाई जाती हैं, उन्हें तुलनाके साथ देनेके अनन्तर परिचयलेख मे लिखा है कि कषायप्राभृतका रचनाकाल यद्यपि निर्णीत नहीं है तो भी इतना तो निश्चित है कि इसकी रचना कुन्दकुन्दाचार्य से पहले हुई है । साथ ही, यह भी निश्चित है कि गुणधराचार्य पूर्ववित थे और उनके इस ग्रंथ की रचना सीधी ज्ञानप्रवादपूर्वके उक्त अशपरसे स्वतंत्र हुई है— किसी दूसरे आधारको लेकर नहीं हुई । अत. यह कहना होगा कि उक्त तीनों गाथाएं प्रभृती ही हैं और उसीपर से पंचसंग्रह में उठाकर रक्खी गई हैं।" इससे पचसंप्रहकी पूर्वसीमाका निर्धारण होता है अर्थात् वह कषायप्राभृतसे, जिसका समय विक्रमकी १ली शताब्दीसे बादका मालूम नहीं होता, पूर्वकी रचना नहीं है, बादकी ही है; परन्तु कितने बाकी, यह अभी ठीक नहीं कहा जा सकता । हाँ, इतना जरूर कहा जा सकता है कि पंचसंग्रहकी रचना विक्रम संवत् १०७३ से बादकी नहीं है— पहलेकी ही है; क्योंकि इन संवत् तिचार्य ने अपना संस्कृतका पंचसंग्रह बनाकर समाप्त किया है, जो प्रायः इसी प्राकृत पंचसंग्रह के आधार पर - इसे सामने रखकर अधिकांशत: अनुवादरूप में प्रस्तुत किया गया है । और इसलिये इस संवत्को पंचसग्रहके निर्माण-कालकी उत्तरवर्ती सीमा कहना चाहिये, अर्थात् इस संवत् के बाद उसका निर्माणसभव नहीं - वह इससे पहले ही हो चुका है। पंचसग्रहके निर्माणके बाद उसके प्रचार, प्रसिद्धि, अमितगति तक पहुँचने और उसे संस्कृतरूप देनेकी प्रेरणा मिलने आदिके लिये भी कुछ समय चाहिये ही, वह समय यदि कमसे कम ५०-६० वर्षका भी मान लिया जाय, जो अधिक नहीं है, तो यह १ त्रिसप्तत्यधिकेऽब्दाना सहले कविद्विषः । मसूनिकापुरे जातमिदं शास्त्र मनोरमम् ॥