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प्रस्तावना
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कहना भी कुछ अनुचित नहीं होगा कि प्रस्तुत ग्रंथ गोम्मटसारसे, जो विक्रम संवत् १०३५ क बाद बना है, पहलेकी रचना है। और इसलिये यह ग्रंथ विक्रमकी ११वी शताव्दीसे पूर्व की ही कृति है । कितने पूर्वकी ? यह विशेष अनुसंधानसे सम्बन्ध रखता है और इससे निश्चितरूपमे उसकी बाबत अभी कुछ नहीं कहा जा सकता, फिर भी इतना तो कह ही सकते हैं कि वह विक्रमकी १ ली और १०वीं शताब्दीके मध्यवर्ती कोई काल होना चाहिये।
(अब मै यहाँ पर इतना और बतला देना चाहता हूँ कि इस ग्रन्थके जो अन्तिम तीन अधिकार कर्मस्तव, शतक और सप्ततिका नामके हैं उन्हीं नामोके तीन ग्रन्थ श्वेताम्बर सम्प्रदायमे अलग भी पाये जाते हैं, जिनकी गाथासंख्या क्रमशः ५५, १०० तथा १०८, ७५ पाई जाती है। उनमेसे शतकको बन्ध-विपयक कथनकी प्रधानताके कारण 'वन्धशतक' भी कहते हैं
और उसका कर्ता कर्मप्रकृतिके रचयिता शिवशर्मसूरिको बतलाया जाता है । 'कर्सस्तव' को द्वितीय प्राचीन कर्मग्रंथ कहा जाता है और उसका अधिक स्पष्ट नाम 'बन्धोदयसत्वयुक्तस्तव' है, उसके कर्ताका कोई पता नहीं। सप्ततिकाको छठा कर्मग्रंथ कहते हैं और उसे चन्द्रर्षि आचार्यकी कृति बतलाया जाता है। खेताम्बरों के इन ग्रंथोंकी पंचसग्रहके साथ तुलना करते हुए, पं० परमानन्दजी शास्त्रीने श्वेताम्बर कर्मसाहित्य और दिगम्बर पचसंग्रह' नामका एक लेख लिखा है, जो तृतीय वर्षके अनेकान्तकी छठी किरणमें प्रकाशित हुआ है । उसमे कुछ प्रमाणों तथा ऊहापोहके साथ यह प्रकट किया गया है कि 'वन्धशतक' शिवशर्मकी, जिनका समय विक्रमकी ५वीं शताब्दी अनुमान किया जाता है, कृति मालूम नहीं होता और न सप्ततिका चन्दर्षिकी कृति जान पड़ती है। साथ हो तीनों ग्रन्थोंमे पाई जानेवाली कुछ असगतता, विशृखलता तथा ऋटियोंका दिग्दर्शन कराते हुए गाथानम्बरोंके निर्देश सहित यह भी बतलाया है कि पंचसंग्रहके शतक प्रकरणकी ३०० गाथाओमेसे ९४ गाथाएँ बन्धशतकमे, कर्मस्तवकी ७८ गाथाओंमेसे ५३ और दो गाथाएँ प्रकृतिसमुत्कीर्तन प्रकरणकी इस तरह ५५ गाथाए कर्मस्तव ग्रन्थमे और सप्ततिका प्रकरणकी कईसौ गाथाओंमेसे ५१ गाथाए सप्ततिका ग्रन्थमे प्रायःन्योकी-त्यों अथवा थोड़ेसे पाठभेद, मान्यताभेद या शब्दपरिवर्तनके साथ पाई जाती हैं, जिनके कुछ नमूने भी दिये गये हैं और उन सबका पचसंग्रहपरसे उठाकर अलग अलग ग्रन्थोंके रूपमे सकलित किया जाना घोपित किया है। शास्त्रीजीका यह सब निर्णय कहाँ तक ठीक है इस सम्बन्ध मे मैं अभी कुछ कहने के लिये तय्यार नहीं हूँ, क्योंकि दिगम्बर पंचसंग्रह और श्वेताम्बर कर्मग्रंथोंके यथेष्ट रूपमे स्वतंत्र अध्ययन एवं गवेषणापूर्ण विचारका मुझे अभी तक कोई अवसर नहीं मिल सका है । अवसर मिलनेपर उस दिशामे प्रयत्न किया जायगा और तब जैसा कुछ विचार स्थिर होगा उसे प्रकट किया जायगा ।
हॉ, एक बात यहाँ पर और भी प्रकट कर देने की है और वह यह कि पंचसंग्रहके शतक अधिकारमे जो ३०० गाथाएं हैं उनकी बावत यह मालूम हुआ है कि उनमे मूलगाथाएं १०० है, बाकी दोसौ २०० भाष्य-गाथाए हैं। इसी तरह सप्ततिकामे मूलगाथाएं ७० और शेष सब भाष्यगाथाएं हैं। और इससे स्पष्ट है कि पंचसंग्रहका सकलन उस वक्त हुआ है जबकि स्वतंत्र प्रकरणोंके रूपमे शतक और सप्ततिकाकी मूल गाथाए ही नहीं बल्कि उनपर भाष्यगाथाएं भी बन चुकी थीं, इसीसे पंचसग्रह्कार दोनोका संग्रह करनमें समर्थ हो सका है। दोनो मूलप्रकरणोपर प्राकृतकी चूर्णि भी उपलब्ध है, दोनोंका ही सम्बन्ध दृष्टिवादकी गाथाओं आदिसे बतलाया गया है। और इससे दोनो प्रकरण अधिक प्राचीन हैं। यह भी मालूम होता है कि भाष्यगाथाओका प्रचार प्रायः दिगम्बर सम्प्रदायमै रहा है-श्वेताम्बर सम्प्रदायकी टीकाओक साथ वे नहीं पाई जाती-और उनमेंस ‘सन्धह्रदीणमुक्कस्स' तथा 'सुहपगदी(यडी)ण विसोही नामकी दो गाथाएं अकलंकदेवके राजवातिक (६-३) में 'उक्त च' रूपसे उद्धत भी मिलती है, जिससे भाष्यगाथाओंका प्राय.