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पुरातन जैनवाक्य-सूची
तो कहना ही क्या है ? वे सब आपके उस विषय के पाण्डित्य और आपकी बुद्धिकी खूबी तथा उसकी सूक्ष्मताके अच्छे परिचायक हैं ।
जयघवलाकी आदिमे मंगलाचरण करते हुए श्रीवीरसेनाचार्यने यतिवृषभका जो स्मरण किया है वह इस प्रकार है :–
जो अज्जमंखु- सीसो श्रंतेवासी वियागहत्थिस्स । सो वित्तिसुत्त कत्ता जइवसहो से वरं देउ ॥ ८ ॥
इसमें यतिवृषभको, कसायपाहुडपर लिखे गए उन वृत्ति (चूर्ण) सूत्रोंका कर्ता बंतलाते हुए जिन्हें साथमे लेकर ही जयघवला टीका लिखी गई है, आर्यमक्षुका शिष्य और नागइस्तिका अन्तेवासी बतलाया है, और इससे यतिवृपभ के दो गुरुओं के नाम सामने आते हैं, जिनके विषय में जयघवलापर से इतना और जाना जाता है कि श्रीगुणधराचार्य ने कसायपाहुड अपर नाम पेज्जदोसपाहुडका उपसंहार (संक्षेप) करके जो सूत्रगाथाएँ रची थीं वे इन दोनोको आचार्य परम्परासे प्राप्त हुई थीं और ये उनके अर्थ के भले प्रकार जानकार थे, इनसे समीचीन अर्थको सुनकर ही यतिवृपभने, प्रवचन - वात्सल्य से प्रेरित होकर उन सूत्र-गाथाओ पर चूर्णिसूत्रो की रचना की है'। ये दोनो जैनपरम्परा के प्राचीन आचार्यों में है और इन्हें दिगम्बर तथा श्वेताम्बर दोनों ही सम्प्रदायोने माना है - श्वेताम्बर सम्प्रदायमं आर्यको आर्य मंगु नामसे उल्लेखित किया है, मंग और मक्षु एकार्थक हैं । धवला - जयधवलामे इन दोनों आचार्योको 'क्षमाश्रमण' और 'महावाचक' भी लिखा है जो उनकी महत्ता द्योतक है । इन दोनो आचार्योंके सिद्धान्त-विषयक उपदेशोंमे कहीं कहीं कुछ सूक्ष्म मतभेद भी रहा है जो वीरसेनको उनके ग्रंथों अथवा गुरुपरम्परासे ज्ञात था, और इसलिये उन्होंने घवला और जयघवला टीकाओं में उसका उल्लेख किया है । ऐसे जिस उपदेशको उन्होंने सर्वाचार्यसम्मत, अव्युच्छिन्न-सम्प्रदाय-क्रम से चिरकालागत और शिष्यपरंपरामे प्रचलित तथा प्रज्ञापित समझा है उसे 'पवाइज्जंत' 'पवाइज्जमाण' उपदेश बतलाया है और जो ऐसा नहीं उसे 'अपवाइज्जंत' अथवा 'अपवाइजमाण' नाम दिया है । उल्लिखित मतभेदोंमे आर्यनागहस्तिके अधिकाश उपदेश 'पवाइज्जत' और आर्यमक्षुके 'अपवाइज्जं त' बतलाये गए हैं । इस तरह यतिवृपभ दानोका शिष्यत्व प्राप्त करनेके कारण उन सूक्ष्म मत
१ ' पुणो तेण गुणहर-भडारएण गाणपवाद - पचमपुत्र दसम वत्थु तदियकसायपाहुड-महण्णव-पारएण गंथवोच्छेदभएण वच्छलपरवसिकयहियएण एवं पेजदोसपाहुडं 'सोलसपदसहस्वपरिमाण होतं असीदिसदमेत्तगाहाहि उपसहारिद । पुणो ताम्रो चेय सुत्तगाथाश्रो श्राइरियपरंपराए श्रागच्छमाणाश्रो श्रज्ज मखु-णागइत्थीणं पत्ताश्र | पुणो तेसि दोह पि पादमूले असीदिसदगाहाण गुणहरमुहकमलविणिग्गयाणमत्थं सम्मं सोऊण जइव सह - भडारएण पवयरणवच्छलेण चुणिसुत्त कयं । ” – जयघवला ।
२ “कम्मठ्ठिदि त्ति श्रणियोगद्दारे हि भण्णमाणे वे उवएसा होंति । जहरणमुक्कस्सट्ठिदीणं पमाणपरूवणा कम्मट्ठिदिपरूवर्णं त्ति णागइत्थि-खमासमणा भणंति । अज्जमखु-खमासमणा पुणःकम्मट्ठिदिपरूवेणे त्तिभति । एवं दोहि उवएसेहि कम्महिदिपरूवणा कायव्वा ।" " एत्य दुवे उवएसा .....महावाचयाणमज्जमखुखवणाणमुवएसेण लोगपूरिदे श्राउगममाणं गामा- गोद-वेदणीयाणं ठिदिसंतकम्मं ठवेदि । महावाचयाणं गागहत्थि खवणारण मुवएसेा लोगे पूरिदे गामा- गोद-वेदरणीयाण हिदिसतकम्मं श्रतोमुहुत्त पमाण होदि । - षट्खं० १ प्र० पृ० ५७
३ “सव्त्राइरिय-सम्मदो चिरकालमवोच्छिण्णसपदायक मेणागच्छमाणो जो सिस्त परंपराए पवाइज्जदे सो पवाइज्जतोवएसो त्ति भण्गदे । अथवा प्रज्जमंखुभयवंताणमुवएसो एत्याऽपवाइज्जमाणो णाम । णग्गदत्थिखमणाणमुवएसो पवाइज्जतो त्ति घेतव्वो । - जयध० प्र० पृ० ४३ ।