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पुरातन-जनवाक्य-सूची
४. ग्रन्थ और ग्रन्थकार श्रीकुन्दकुन्दाचार्य और उनके ग्रन्थ ---
अब मैं अपने पाटकोको उन मृलप्रथों और ग्रंथकारोका संक्षेपमे कुछ परिचय करा देना चाहता हूँ जिनके पद्य-वाक्योका इस ग्रंथम अकारादिकम से एकत्र संग्रह किया गया है। सब से अधिक ग्रंथ (२२ या २३) श्रीकुन्दकुन्दाचाय के है. जो पाटुट प्रकि कर्ता प्रसिद्ध है और जिनके विदेड-नेत्रमे श्रीमीमंघर-स्वामी समवसरण में जाकर माक्षात तीर्थकरमुस तथा गणधर देवसे बोध प्राप्त करनेकी कथा भी सुप्रमिद और जिनका समय विक्रमकी प्रायः प्रथम शताब्दी माना जाता है। अतः उनीक ग्रंथांने इन परिचयका प्रारंभरिया जाना है।
यहाँ पर मैं इन प्रन्यकार-गहोदय के सम्बन्धमे एतना 'पौर बतला देना चाहता हूँ. कि इनका पहला-संभवतः दीक्षाकालीन नाम पझानन्दी था, परन्तु ये फोएटफुन्दाचार्य अथवा कुन्दकुन्दाचार्य के नाममे ही अधिक प्रसिद्धि को प्राप्त हुआ है, जिसका कारण 'कोएडकुन्दपुर' के अधिवासी होना बतलाया जाता है। उसी नामने इनकी वशपरम्परा चली है अथवा 'कुन्दकुन्दान्वय' स्थापित हुया है, जो अनेक शारया-प्रशासानोमे विभक्त होकर दूर दूर तक फैला है।(मर्कराके ताम्रपत्रमे, जो शक सवन ३८८ में उत्तीर्ण हुया है. इसी कोण्डकुन्दान्वयकी परम्परामे होनेवाले छह पुगतन 'पापार्योका गुरु-शिप्यके क्रमसे उल्लेख है)। ये मूलसंघ के प्रधान प्राचार्य थे. पूतात्मा थे, सत्मयम एव तपश्चरणके प्रभावसे इन्हे चारण-द्धिकी प्राप्ति हुई थी और उसके बलपर ये पृथ्वीमे नाय. चार 'अंगुल ऊपर अन्तरिक्षमे चला करते थे। इन्होंने भरतक्षेत्रम श्र तकी-जैन आगमकी--प्रतिष्ठा की हैउसकी मान्यता एवं प्रभावको स्वयके प्राचरणादि-दाग (बुद 'प्रामिल बनकर) ऊँचा उठाया तथा सर्वत्र व्याप्त किया है अथवा यो कहिये कि आगमके अनुसार चलनेको खास महत्व दिया है, ऐसा श्रवणबेल्गोलके शिलालेखों प्रादिसे जाना जाता है। ये बहुत ही प्रामाणिक एवं प्रतिष्ठित प्राचार्य हुए हैं। सभवतः एनकी उक्त अत-प्रतिष्ठाके कारण ही शास्त्रसभाकी
आदिमे जो मङ्गलाचरण 'मगल भगवान वीरो' इत्यादि किया जाता है उसमें 'मगलं कुन्दकुन्दा-' इस रूपसे उनके नामका बास उल्लेख है। १ देवसेनाचार्यने भी, अपने दर्शनमार (वि० स०६९०) को निम्न गाया में, कुन्दनन्द (पद्मनन्दि) के सीमघर-स्वामीसे दिव्यज्ञान प्राप्त करने की बात लिखी है:
____जह पउमणदि-गादो सीमंघरसामि-दिव्बणाणेण ।
ण विवोहए तो समणा कहं सुमगं पयाणंति ॥ ४३ ॥ २ तस्यान्वये भूविदिते बभूव य' पद्मनन्दि-प्रथमाभिधानः । श्रीकौण्डकुन्दादिमुनीश्वराख्यस्सत्सयमादुद्गत-चारणाद्धिः ।।
-श्रवणवेल्गोल-शिलालेख नं० ४० ३ देखो, कुर्ग-इन्स्क्रिपशन्म ( E C. I.) । ३ वन्यो विभुभुवि न कैरिह कौण्डकुन्दः कुन्दप्रभा-प्रणयि-कीर्ति-विभूषिताशः । यश्चारु-चारण-कराम्बुज.चञ्चरीकश्चक्रे-श्रुतस्य भरते प्रयत: प्रतिष्ठाम् ।।-५० शि० ५४ रजोभिरस्पृष्टतमत्वमन्तर्बाह्येऽपि संव्यजयितुं यतीश. । रज पदं भूमितलं विहाय चचार मन्ये चतुरंगुल सः ॥–श्र० शि० १०५