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________________ प्रस्तावना ११ के तौरपर 'अ' अक्षर क, ग, च, ज, त, द्, प, और य जैसे अक्षरोंके लिये भी प्रयुक्त होता 'है, जैसे 'लो' मेक, ग, च, प, य के लिये, 'जुअल' मेग के लिये, 'लोअरण' मे च के लिये, 'रअ' में ज के लिये, 'भणि' मे त, द के लिये, 'आमा' मे द के लिये, 'दी' मे प, व के लिये, 'दाअ' मे य के लिये और 'रण' में व के लिय प्रयुक्त हुआ है । इसी तरह 'क' अक्षर के लिये अ, ग, य आदि अक्षरोंका प्रयोग देखनेमे आता है; जैसे 'लो' मे का, लोग' मे गका और 'लोय' मे य का प्रयोग हुआ है, ये तीनों शब्द लोकार्थक हैं और लोगा - गास तथा लोयायास जैसे शब्दोंमे इनका यथेच्छ प्रयोग पाया जाता है । कितने ही शब्द ऐसे हैं जो अर्थ और वजनकी दृष्टिसे समान हैं और उनका भी यथेच्छ प्रयोग पाया जाता है, जैसे इइ = इदि, एए= एदे और इक्कं = एक्क= एग = एय । यह सब वर्णविकार कुछ तो प्राकृत भाषाके नियमोका ऋणी है और कुछ विकल्पसे सम्बन्ध रखता है, जिसमे इच्छानुसार चाहे जिस विकल्प अथवा शब्द-रूपका प्रयोग किया जा सकता हैं । इस वर्णविकार के कारण पद्यवाक्योके क्रममें कितना ही अन्तर पड़ जाना संभव है । लेखकों की कृपासे, जो कि प्रायः भाषा विज्ञ नहीं होते, उस अन्तरको और भी गुंजाइश मिलती है । इसीसे एक ही प्रथकी अनेक प्रतियों में एक ही शब्दका अलग अलग रूपसे भी प्रयोग देखनेमे आता है; जैसे लोगागास और लोयायास का । I अनुक्रर्माणकाके श्रवसरपर इस अंतर से कभी कभी बड़ी अड़चन पैदा हुई है – किस किस पाठान्तरको दिया जावे और कैसे क्रम रक्खा जावे ? आखिर बहुमान्य पाठोको ही अपनाया गया है और कहीं कहीं उदाहरण के रूपमें पाठान्तरोको भी दिखला दिया गया है। 'थप्रतियों की ऐसी स्थितिको देखकर, मै चाहता था कि इस ग्रंथमें वर्ण-विकार- विषयक एक विस्तृत सूची (Table) उदाहरण सहित ऐसी लगाई जावे जिससे यह मालूम हो सके कि अकारादि एक-एक वर्ण दूसरे किस किस वर्णके लिये प्रयोगमे आता है और उसकी सहायतासे अपने किसी वाक्यका पता लगाने वालेको उसके खोजनेमे सुविधा मिल सके और वह वर्ण-विकारके नियमोसे अवगत होकर इस वाक्य सूचीमे थोड़ेसे अन्य प्रकार के पाठ तथा अन्य क्रमको लिये हुए होनेपर भी अपने उस वाक्य की खोज लगा सके और साधारण से रूपान्तर तथा पाठभेदके कारण यह न समझ बैठे कि वह वाक्य इस वाक्य-सूचीमे श्र हुए किसी भी ग्रंथका नहीं है । परन्तु एक तो यह काम बहु-परिश्रम - साध्य था, इसीसे यथेष्ट अवकाश न मिलनेके कारण बराबर टलता रहा, दूसरे प्राकृत भाषाके विशेषज्ञ सुहृदर डा० ए० एन० उपाध्येजी कोल्हापुरकी यह राय हुई कि इस सूचीसे उन विद्वानोंको तो कोई विशेष लाभ पहुँचेगा नहीं जो प्राकृतभाषाके पंडित हैं - वे तो इस प्रकारकी सूची के बिना भी अपना काम निकाल लेंगे और प्रस्तुत ग्रंथ में अपने इष्टवाक्यके अस्तित्व अनस्तित्वको सहजमें ही मालूम कर सकेंगे — और जो प्राकृतभाषा के पंडित नहीं हैं वे ऐसी सूचीसे भी ठीक काम नहीं ले सकेंगे, और इसलिये उनके वास्ते इतना परिश्रम उठानेकी जरूरत नहीं । तदनुसार ही उस सूची के विचारको यहाँ छोड़ा गया है और उसके संबंध में ये थोड़ी-सी सूचनाएँ कर देना ही उचित समझा गया है। इस वर्ण-विकार के कारण कुछ वाक्य समान होनेपर भी वाक्यसूची में भिन्न स्थानोंपर मुद्रित हुए हैं— जैसे भावसंग्रहका 'ठिदिकरणगुणपउत्तो' वाक्य जो मुद्रित प्रतिमें इसी रूपसे पाया जाता है, वर्णक्रमके कारण पृष्ठ १३० पर मुद्रित हुआ है और वसुनन्दिश्रावकाचारका 'ठिदियर रणगुणपउत्तो' वाक्य पृष्ठ १३१ पर अतरसे छपा है - और इसीसे ऐसे वाक्योंपर समानताके चिन्ह नहीं दिये जा सके हैं ।
SR No.010449
Book TitlePuratan Jain Vakya Suchi 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1950
Total Pages519
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size33 MB
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