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पुरातन जनवाक्य-सूची
माना जाता है तो फिर यह कहना होगा कि ग्रन्थमें २६ गाथाएं बढ़ी हुई हैं, जो किसी तरह ग्रन्थमें प्रक्षिप्त हुई हैं और जिन्हें प्राचीन प्रतियों आदिपरसे खोजने की जरूरत है । यहाँ पर मैं एक गाथा नमूने के तौर पर प्रस्तुत करता हूँ, जो स्पष्टतया प्रक्षिप्त जान पडती है और जिसकी मौजूदगी में यह नहीं कहा जा सकता कि वह पूरी ३६२ गाथाओं का ग्रंथ है - उसमे कोई गाथा प्रक्षिप्त नहीं है:
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कंपाकहाय विरामवयगहण सह तिसुद्धीए । पादद्धतयं सव णास पावं ण संदेहो || ३५७ ॥
इसके पूर्व की 'एदं पायच्छित्तं' गाथामे ग्रन्थसमाप्तिकी सूचनाका प्रारंभ करते हुए केवल इतना ही कहा गया है कि 'बहुत आचार्यों के उपदेशको जानकर और जीत आदि शास्त्रोंको सम्यक् अवधारण करके यह प्रायश्चित्त ग्रंथ', और फिर उक्त गाथाको देकर उत्तरवर्ती 'चाउव्वणपराधविशुद्धि णिमित्तं' नामकी गाथामे उस समाप्तिकी बातको पूरा करते हुए लिखा है कि 'चातुवर्णों के अपराधोंकी विशुद्धि के निमित्त मैने कहा है, इसका नाम 'छेदपिण्ड' है, साधुजन आदर करो'। इससे स्पष्ट है कि पूर्वोत्तरवर्ती दोनों गाथाओका परस्पर घनिष्ट सम्बन्ध है और वे 'युग्म' कहलाये जाने योग्य गाथाएँ हैं, उनके मध्य मे उक्त गाथा नं० ३५७ असंगत है । वह गाथा दूसरे 'छेदशास्त्र' की है, जिसका परिचय आगे दिया जायगा और उसमे नं० ६१ पर सस्कृतवृत्तिके साथ दर्ज है, तथा छेद पिण्डके उक्त स्थलपर किसी तरह प्रक्षिप्त हुई है। इसी तरह खोज करनेपर और भी प्रक्षिप्त गाथाएँ मालूम हो सकती हैं । कुछ गाथाएं इसमे ऐसी भी हैं जो एकसे अधिक स्थानोपर ज्योंकीत्यो पाई जाती हैं, जिनका एक नमूना इस प्रकार है:
जेवणादो गियगणमज्झयहेदुणायादा |
तेसि पि तारिसाणं आलोयणमेव संसुद्धी ||
यह गाथा १७० और १=१ नम्बर पर पाई जाती है और इसमे इतना ही बतलाया गया है कि 'जो साधु दूसरे गणसे अपने गणको अध्ययन के लिये आये हुए हैं उनके लिये भी आलोचन नामका प्रायश्चित्त है ।' अतः यह एक ही स्थानपर होनी चाहिये- दूसरे स्थलपर इसकी व्यर्थं पुनरावृत्ति जान पड़ती है । एक दूसरी 'ख' प्रतिमे यह १७० वे स्थलपर है भी नहीं । एक दूसरा नमूना 'तस्सिरसागं सुद्धी (सोही)' नामकी गाथा नं० २५६ का है, जो पहले नं० २४७ पर आ चुकी है, यहाँ व्यर्थ पड़ती है और 'ख. ग' नामको दो प्रतियोंमे पिछले स्थलपर है भी नहीं । और भी कई गाथाएं ऐसी हैं जिनकी बाबत फुटनोटों में यह सूचना की गई है कि वे दूसरी प्रतियोंमे नहीं पाई जातीं। जांचनेपर उनमें से भी अनेक गाथा प्रक्षिप्त तथा व्यर्थ बढ़ी हुई हो सकती हैं।
इस प्रकार प्रक्षिप्त और व्यर्थ बढ़ी हुई गाथाओं के कारण भी ग्रन्थकी वास्तविक गाथासख्या ३६२ नहीं हो सकती, और इस लिये 'वेतीसुत्तर' की जगह 'वासट्ठित्तर' पाठ की जो कल्पना की गई है वह समुचित प्रतीत नहीं होती । अस्तु ।
इस ग्रंथ कर्ता इन्द्रनन्दी नामके आचार्य हैं, जिन्होंने अन्तकी दो गाथाओं मे क्रमशः 'गणी' तथा 'योगीन्द्र' विशेषणोंके साथ अपना नामोल्लेख करनेके सिवाय और कोई अपना परिचय नहीं दिया । (इन्द्रनन्दी नामके अनेक आचार्य जैन समाजमे हो गए हैं, और इसलिये यह कहना सहज नहीं कि उनमे से यह इन्द्रनन्दी गरणी अथवा योगीन्द्र कौनसे हैं ? एक इन्द्रनन्दी गोम्मटसार के कर्ता नेमिचन्द्रके गुरुवोंमें - ज्येष्ठ गुरुभाईके रूप में - हुए हैं और प्राय. वे ही ज्वालामालिनी कल्पके कर्ता जान पड़ते हैं, जिसकी रचना शक संवत्