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प्रस्तावना
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५२. छेद पिएड और इन्द्रनन्दी - यह प्रायश्चित विषयका एक महत्वपूर्ण प्रन्थ है, प्रायश्चित्त, छेद, मलहरण, पापनाशन, शुद्धि, पुण्य, पवित्र, पावन ये सब प्रायश्चित्तके ही नामान्तर है ( गा० ३) । प्रायश्चित्तके द्वारा चित्तादिकी शुद्धि करके आत्मविकासको सिद्ध किया जाता है । जिन्हें अपने आत्मविकासको सिद्ध करना अथवा मुक्तिको प्राप्त करना इष्ट है उन्हें अपने दोषों-अपराधोंपर कडी दृष्टि रखनेकी जरूरत है और उनकी मात्रा - नुसार दण्ड लेनेके लिये स्वयं सावधान एवं तत्पर रहनेकी बड़ी जरूरत है । किस दोष अथवा अपराधका किसके लिये क्या प्रायश्चित्त विहित है, यही सब इस ग्रन्थका विषय है, जी अनेक परिभाषाओं तथा व्याख्याओं के साथ वर्णित है । यह मुनि, आर्यिका श्रावकश्राविकारूप चतुःसंघ और ब्राह्मण-क्षत्रिय वैश्य शूद्ररूप चतुर्वर्णके सभी स्त्री-पुरुषों को लक्ष्य करके लिखा गया है— सभी से बन पड़नेवाले दोषो अपराधोंके प्रकारोंका और उनके आगमादिविहित तपश्चरणादिरूप संशोधनोंका इसमें निर्देश और संकेत है । यह अनेक आचार्यों के उपदेशको अधिगत करके जीत और कल्पव्यवहारादि प्राचीन शास्त्रों के आधारपर लिखा गया है (३५६) । इतने पर भी परमार्थशुद्धि और व्यवहारशुद्धिके भेदों मे यदि कहीं कोई विरुद्ध अर्थ अज्ञानभावसे निबद्ध हो गया हो तो उसके संशोधन के लिये प्रन्थकारने छेदशास्त्रके मर्मज्ञ विद्वानोंसे प्रार्थना की है ( गा०३५६) । वास्तव मे आत्मशुद्धि का मर्म और उस शुद्धिकी प्राप्तिका मार्ग ऐसे ही रहस्य- शास्त्रोंसे जाना जाता है । इसीसे ऐसे शास्त्रों के जानकार एवं भावनाकारको लौकिक तथा लोकोत्तर व्यवहारमे कुशल बतलाया है ( गा० ३६१ ) | )
इस ग्रंथकी गाथासंख्या प्रथमे दी हुई संख्या के अनुसार ३३३ है, जिसे ४२० श्लोक-परिमाण बतलाया है । परन्तु मुद्रित प्रतिमें वह ३६२ पाई जाती हैं । इसपर पं० नाथूरामजी प्रेमीने अपने ग्रंथपरिचय में यह कल्पना की है कि "मूल में ' तेतीसुत्तर' की जगह 'बासट्टित्तर' या इसीसे मिलता जुलता कोई और पाठ होना चाहिये; क्योंकि ३२ अक्षरोंके श्लोकके हिसाब से अब भी इसकी लोकसंख्या ४२० के ही लगभग है और ३३३ गाथाओं के ४२० श्लोक हो भी नहीं सकते हैं ।" यद्यपि 'बासट्टयुत्तर' के स्थानपर ' तेतीसुत्तर' पाठके लिखे जानेकी संभावना कम है और यह भी सर्वथा नहीं कहा जा सकता कि ३३३ गाथाओं के ४२० श्लोक हो ही नहीं सकते; क्योंकि गाथामें अक्षरोंकीं संख्याका नियम नहीं है— वह वर्णिक छंद न होकर मात्रिक छंद है और उसमे भी कई प्रकार हैं जिनमें मात्राओंकी भी कमी- बेशी होती है—ऐसी कितनी ही गाथाएँ देखी जाती हैं जिनके पूर्वार्ध में यदि २२-२३ अक्षर हैं तो उत्तरार्ध में १८-२० अक्षर तक पाये जाते हैं, और इस तरह एक गाथाका परिमाण प्रायः सवा १३ लोक जितना हो जाता है, जिससे उक्त गाथासंख्या और श्लोकसंख्याकी पारस्परिक संगति ठीक बैठ जाती है; फिर भी प्रन्थकी सब गाथाएं सवा श्लोक - जितनी नहीं है और उनका औसत भी सवा श्लोक जितना न होनेसे गाथासंख्या और श्लोकसंख्या की पारस्परिक संगति में कुछ अन्तर रह ही जाता है। इस सम्बन्धमें मेरा एक विचार और है और वह यह कि गाथाओ के साथ जो श्लोक संख्याको दिया जाता है उसका लक्ष्य प्रायः लेखकोंके लिये ग्रन्थका परिमाण निर्दिष्ट करना होता है; क्योंकि लिखाई उन्हें प्रायः श्लोक संख्या के हिसाब से ही दी जाती है । और इस दृष्टिसे अंकादिकको शामिल करके कुछ परिमाण अधिक ही रक्म्बा जाता है । ऐसी हालत में ३३३ गाथाओंके लिये ४२० की श्लोक संख्याका निर्देश सर्वथा असंगत या असंभव नहीं कहा जा सकता । यदि दोनों संख्याओको ठीक
१ चउरख्या वीसुतराई गंथस्स परिमाणं । तेतीसुत्तर तिसयं पमाण गाहाणिवद्धस्स || ३६० ॥