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प्रस्तावना
१३६ विचारोको भी प्रकट कर सकते थे, जिनके लिये ज्ञानोपयोगका प्रकरण होनेके कारण वह स्थल (सन्मतिका द्वितीय काण्ड) उपयुक्त भी था, परन्तु वैसा न करके उन्होंने वहाँ उक्त द्वात्रिशिकाके विरुद्ध अपने विचारोको रक्खा है और इसलिये उसपरसे यही फलित होता है (क वे उक्त द्वात्रिंशिकाके कर्ता नहीं है उसके कर्ता कोई दूसरे ही सिद्धसेन होने चाहिये । उपाध्याय यशोविजयजीने द्वात्रिंशिकाका न्यायावतार और सन्मतिके साथ जो उक्त विरोध बैठता है उसके सम्बन्धमें कुछ नहीं कहा।
___ यहाँ इतना और भी जान लेना चाहिये कि श्रुतकी अमान्यतारूप इस द्वात्रिंशिकाके कथनका विरोध न्यायावतार और सन्मतिके माथ ही नहीं है बल्कि प्रथम द्वात्रिंशिकाके साथ भी है, जिसके सुनिश्चितं नः' इत्यादि ३०वें पद्यमें 'जगत्प्रमाणं जिनवाक्यविपुषः' जैसे शब्दोंद्वारा अहत्प्रवचनरूप श्रुतको प्रमाण माना गया है।
(५) निश्चयद्वात्रिंशिकाकी दो बातें और भी यहाँ प्रकट कर देनेकी हैं. जो सन्मतिके साथ स्पष्ट विरोध रखती हैं और वे निम्न प्रकार हैं:"ज्ञान दर्शन-चारित्राण्युपायाः शिवहेतवः । अन्योऽन्य-प्रतिपक्षत्वाच्छुद्धावगम-शक्तयः ॥१॥"
___ इस पद्यमे ज्ञान, दर्शन तथा चारित्रको मोक्ष-हेतुओके रूपमे तीन उपाय(मार्ग) बतलाया है-तीनोंको मिलाकर मोक्षका एक उपाय निर्दिष्ट नहीं किया, जैसा कि तत्त्वार्थसूत्रके प्रथमसूत्रमें मोक्षमार्गः' इस एकवचनात्मक पदके प्रयोग-द्वारा किया गया है। अतः ये तीनों यहाँ समस्तरूपमें नहीं किन्तु व्यस्त (अलग अलग) रूपमें मोक्षके मार्ग निर्दिष्ट हुए हैं
और उन्हें एक दूसरेके प्रतिपक्षी लिखा है। साथ ही तीनों सम्यक विशेषणसे शून्य हैं और दर्शनको ज्ञानके पूर्व न रखकर उसके अनन्तर रक्खा गया है जो कि समूची द्वात्रिशिकापरसे श्रद्धान अर्थका वाचक भी प्रतीत नहीं होता । यह सब कथन सन्मतिसूत्रके निम्न वाक्योंके विरुद्ध जाता है जिनमें सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रकी प्रतिपत्तिसे सम्पन्न भव्यजीवको ससारके दुःखोंका अन्तकर्तारूपमें उल्लेग्वित किया है और कथनको हेतुवाद सम्मत बतलाया है (३-४४) तथा दर्शन शब्दका अर्थ जिनप्रणीत पदार्थोंका श्रद्धान ग्रहण किया है। साथ ही सम्यग्दर्शनके उत्तरवर्ती सम्यग्ज्ञानको सम्यग्दर्शनसे युक्त बतलाते हुए वह इस तरह सम्यग्दर्शनरूप भी है, ऐसा प्रतिपादन किया है (२-३२, ३३):- ,
'एव जिणपण्णत्त सद्दहमाणस्स भावो भावे । पुरिसस्सोभिणिवोहे दसणसद्दो हवइ जुत्तो ॥२-३२॥ सम्मएणाणे णियमेण दसणं दसणे उ भयणिज्ज । सम्मएणाण च इमं ति अत्थो होइ उववरण ॥२-३३॥ भविश्रो सम्मबसण-णाण-चरित्त-पडिवत्ति-संपएणो । णियमा दुक्खंतकडो ति लक्खणं हेउवायस्स ॥३-४४॥
निश्चयद्वात्रिंशिकाका यह कथन दूसरी कुछ द्वात्रिशिकाओके भी विरुद्ध पड़ता है, जिसके दो नमूने इस प्रकार है:
"क्रिया च सज्ञान-वियोग-निष्फला क्रिया विहीना च विबोधसपदम् । निरस्यता क्लेश समूह शान्तये त्वया शिवायालिखितेव पद्धतिः ॥१-२६॥"
“यथाऽगद-परिज्ञानं नालमाऽऽमय-शान्तये । श्रचारित्र तथा ज्ञान न बुद्धथध्य(व्य)वसायतः ॥१७-२७॥"