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________________ प्रस्तावना बालमरण अविरत-सम्यग्दृष्टियोंका, बालपंडितमरण विरताऽविरत ( देशव्रती ) श्रावकोका, पंडितमरण सकल संयमी साधुओंका और पडितपडितमरण क्षीणकषाय केवलियोंका होता है। साथ ही, पंडितमरणके १ भक्तप्रत्याख्यान, २ इंगिनी और ३ प्रायोपगमन ऐसे तीन भेट करके भक्तप्रत्याख्यानके सविचार-भक्त-प्रत्याख्यान और अविरार-भक्त-प्रत्याख्यान ऐसे दो भेद किये हैं और फिर सविचारभक्तप्रत्याख्यानका 'अर्ह' आदि घालीम अधिकारोमे विस्तारके साथ वर्णन दिया है। तदनन्तर अविचार-भक्तप्रत्याख्यान, इंगिनी, प्रायोपगमनमरण, बालपडितमरण और पंडितपंडितमरणका संक्षेपत. निरूपण किया है। इस विषय के इतने अधिक विस्तृत और व्यवस्थित विवेचनको लिये हुए दूसरा कोई भी ग्रंथ जनसमाजमे उपलब्ध नहीं है। अपने विषयका असाधारण मूलपथ होनेसे जैनसमाजमे यह खूब ख्यातिको प्राप्त हुआ है। इसकी गाथासंख्या सब मिलाकर २१७० है, जिनमे ५ गाथाएं 'उक्त च' आदि रूपसे दी हुई हैं।) (भगवती आराधनाके कर्ता, शिवार्य अथवा शिवकोटि नामके आचार्य हैं. जिन्होंने प्रथके अन्तमे आयेजिननन्दिगणी, सर्वगुप्तगणी और आर्यमित्र नन्दीका अपने विद्या अथवा शिक्षा-गुरुके रूपमे इस प्रकारसे उल्लेख किया है कि उनके पादमूलमे बैठकर 'सम्-' सूत्र और उसके अर्थकी अथवा सूत्र और अर्थकी भले प्रकार, जानकारी प्राप्त की गई और पूर्वाचार्य अथवा आचार्योंके द्वारा निबद्ध हुई आराधनाओका उपयोग करके यह आराधना स्वशक्तिके अनुसार रची गई है। साथ ही, अपनेको 'पाणि-दल-भोजी' (करपात्रआहारी) लिखकर श्वेताम्बर सम्प्रदायसे भिन्न दिगम्बर सम्प्रदायका सूचित किया है। इसके सिवाय, उन्होंने यह भी निवेदन किया है कि छद्मस्थता (ज्ञानकी अपूर्णता) के कारण मुझसे कहीं कुछ प्रवचन (आगम) के विरुद्ध निबद्ध होगया हो तो उसे सुगीतार्थ (आगमज्ञानमे निपुण) साधु प्रवचनवत्सलताकी दृष्टिसे शुद्ध कर लेवें । और यह भावना भी की है कि भक्तिसे वर्णन की हुई यह भगवती आराधना संघको तथा (मुझ)शिवार्यको उत्तम समाधि-वर प्रदान करे-इसके प्रसादसे मेरा तथा संघके सभी प्राणियोंका समाधिपूर्वक मरण होवे'। ____इस प्रथपर सस्कृत, प्राकृत और हिन्दी आदिकी कितनी ही टीका-टिप्पणियाँ लिखी गई ह अनुवाद भा हुए हैं और वे सब ग्रंथकी' ख्याति, उपयोगिता, प्रचार और महत्ताके द्योतक हैं। प्राकृतकी टीका-टिप्पणियाँ यद्यपि आज उपलब्ध नहीं हैं, परन्तु सस्कृत टीकाओं मे उनके स्पष्ट प्रमाण उपलब्ध होते हैं और वे अथकी प्राचीनताको सविशेषरूपसे सूचित करते है । जयनन्दी और श्रोघरके दो टिप्पण और एक अज्ञातनाम विद्वानका पद्यानुवाद भी अभी तक उपलब्ध नहीं हुए, जिनका पं० आशाघरकी टोकामे उल्लेख है। और भी कुछ टीका-टिप्पणियाँ अनुपलब्ध हैं । उपलब्ध टीकाओंमे संभवतः विक्रमकी ८ वीं शनाब्दीके विद्वान आचार्य अपराजित सूरिकी विजयोदया' टीका, १३ वीं शताब्दीके विद्वान पं. आशाघरकी मूलाराघनादर्पण' नामकी टीका और ११ वीं शताब्दीके विद्वान् अमितगतिकी पद्यानुवादरूपमें 'सस्कृत आराधना' ये तीनों कृतियाँ एक साथ नई हिन्दी टीका-सहित १ श्रज्जजिणणदिगणि-सव्वगुत्तगणि-अज्जमित्तणदीण । 'अवगमिय पादमूले सम्म सुत्त च अत्यं च ॥ २१६५ पुवायरियणिबद्धा उवजीवित्ता इमा ससत्तीए । श्राराहणा सिवज्जेण पाणिदलभोहणा रइदा ॥ २१६६ ॥ छदुमत्यदाए एत्य दु ज बद्धं होज पवयण-विरुद्धं । मोधतु सुगीदत्या पवयण-बच्छलदाप दु ॥ २१६७ ।। आराहणा भगवदी एव भक्तीए वरिणदा सती । सघस्स सिवज्जस्स य समाहिवरमुत्तम देउ ॥ २१६८ ।।
SR No.010449
Book TitlePuratan Jain Vakya Suchi 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1950
Total Pages519
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size33 MB
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