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प्रस्तावना गोम्मटसुत्तल्लिहणे गोम्मटरायेण जं कया देसी । -
सो जयउ चिरं कालं (रात्रो) णामेण य वीरमत्तंडी॥ गाथाके इस संशोधित रूपपरसे उसका अर्थ निम्न प्रकार होता है :
'गोम्मट-सूत्रके लिखे जानेके अवसरपर-गोम्मटसार शास्त्रकी पहली प्रति तैयार किये जानेके समय-जिस गोम्मटरायके द्वारा देशीकी रचना की गई है-देशकी भाषा कनडीमें उसकी छायाका निर्माण किया गया है-वह 'वीरमार्तण्डी' नामसे प्रसिद्धिको प्राप्त राजा चिरकाल तक जयवन्त हो।'
यहाँ 'देसी' का अर्थ 'देशकी कनडी भाषामे छायानुदादरूपसे प्रस्तुत की गई कति' का ही संगत वैठता है न कि किसी वृत्ति अथवा टीकाका; क्योंकि ग्रंथकी तैयारीके बाद उसकी पहली साफ कापीके अवसरपर, जिसका ग्रंथकार स्वयं अपने ग्रंथके अन्तमें उल्लेख कर सके, छायानुवाद-जैसी कृतिकी ही कल्पना की जा सकती है, समय-साध्य तथा अधिक परिश्रमकी अपेक्षा रखनेवाली टीका-जैसी वस्तुकी नहीं। यही वजह है कि घृत्तिरूपमे उस देशीका अन्यत्र कहीं कोई उल्लेख नहीं मिलता-वह संस्कृत-छायाकी तरह कन्नड-छायारूपमे ही उस वक्तकी कर्नाटक-देशीय कुछ प्रतियोंमे रही जान पड़ती है।
अब मैं दूसरी दो टीकाओंके सम्बन्धमें इतना और बतला देना चाहता हूँ कि अभयचन्द्रकी 'मन्दप्रबोधिका' टीकाका उल्लेख चूंकि केशववर्णीकी कन्नड-टीकामें पाया जाता है इससे वह ई० सन १३५६ से पहलेकी बनी हुई है इतना तो सुनिश्चित है; परन्तु कितने पहलेकी ? इसके जाननेका इस समय एक ही साधन उपलब्ध है और वह है मंदप्रबोधिकामें एक 'बालचन्द्र पण्डितदेव' का उल्लेख डा० उपाध्येने, अपने उक्त लेखमे इनकी तुलना उन 'बालेन्दु' पंडितसे की है जिनका उल्लेख श्रवणबेल्गोलके ई० सन् १३१३ के शिलालेख नं०६५ में हुआ है और जिनकी प्रशंसा अभयचन्द्रकी प्रशंसाके साथ वेलूर के शिलालेखों नं० १३१-१३३ में की गई है और जिनपरसे बालचंद्रके स्वर्गवासका समय ई० सन् १२७४ तथा अभयचन्द्रके स्वर्गवासका समय ई० सन् १२७६ उपलब्ध होता है। और इस तरह 'मन्दप्रबोधिका' का समय ई० सन्की १३वीं शताब्दीका तीसरा चरण स्थिर किया जा सकता है। शेष रही पंडित टोडरमल्लजीकी 'सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका' टीका, उसका समय सुनिश्चित है ही-वह माघ सुदी पञ्चमी सं० १८१८ को लब्धिसार-क्षपणासारकी टीकाकी समाप्तिसे कुछ पहले ही बनकर पूर्ण हुई है। इसी हिन्दी टीकाको, जो खूब परिश्रमके साथ लिखी गई है, गोम्मटसार ग्रंथके प्रचारका सबसे अधिक श्रेय प्राप्त है।
इन चारों टीकाओके अतिरिक्त और भी अनेक टीका-टिप्पणादिक इस ग्रंथराज पर पिछली शताब्दियोंमें रचे गये होंगे, परन्तु वे इस समय अपनेको उपलब्ध नहीं हैं और इसलिये उनके विषयमे यहाँ कुछ भी नहीं कहा जा सकता।
४१. लब्धिसार—यह लब्धिसार ग्रंथ भी उन्हीं श्रीनेमिचन्द्राचार्यकी कति है जो कि गोम्मटसारके कर्ता हैं और इसे एक प्रकारसे गोम्मटसारका परिशिष्ट समझा जाता है । गोम्मटसारके दोनों काण्डोंमे क्रमशः जीव और कर्मका वर्णन है, तब इसमे बतलाया गया है कि कर्मों को काटकर जीव कैसे मुक्तिको प्राप्त कर सकता अथवा अपने शुद्धरूपमें स्थित होसकता है। इसका प्रधान आधार कसायपाहुड और उसकी धवला टोका है। इसमें १ जीवकाण्ड, कलकत्ता सस्करणं, पृ० १५० । २ एपिनेफिया कर्णाटिका जिल्द न० २ । ३ एपिग्रेफिया कर्णाटिका जिल्द न० ५ ।