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पुरातन जैनवाक्य-सूची
७. चारित्तपाप्लुड – इस ग्रंथकी गाथासंख्या ४४ और उसका विषय सम्यक चारित्र है । सम्यक् चारित्रको सम्यक्त्वचरण और संयमचरण ऐसे दो भेदोमे विभक्त करके उनका अलग अलग स्वरूप दिया है और संयमचरण के सागार अनगार ऐसे दो भेट करके उनके द्वारा क्रमशः श्रावकधर्म तथा यतिधर्मका अतिसंक्षेपमे प्रायः सूचनात्मक निर्देश किया है 1
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८. सुत्तपाहुड – यह ग्रथ २७ गाथात्मक है । इसमे सूत्रार्थकी मार्गणाका उपदेश - आगमका महत्व ख्यापित करते हुए उसके अनुसार चलनेकी शिक्षा दी गई है । और साथ ही सूत्र (आगम) की कुछ वातोंका स्पष्टताके साथ निर्देश किया गया है, जिनके संबंध में उस समय कुछ विप्रतिपत्ति या गलतफहमी फैली हुई थी अथवा प्रचारमे आरही थी. ६. बोधपाहुड —— इस पाहुडका शरीर ६२ गाथाओं से निर्मित है। इनमे १ आयतन, चैत्यगृह, ३ जनप्रतिमां, ४ दर्शन. ५ जिनवम्ब, ६ जिनमुद्रा, ७ आत्मज्ञान, ८ देव, तीर्थ, १० अर्हन्त, ११ प्रव्रज्या इन ग्यारह बातोका क्रमशः आगमानुसार बोध दिया गया है । इस ग्रंथकी ६१ वीं गाथामे' कुन्दकुन्द ने अपनेको भद्रबाहुका शिष्य प्रकट किया है जो संभवतः भद्रबाहु द्वितीय जान पड़ते है, क्योंकि भद्रबाहु न त केवली के समयमे जिनकथित श्रुतमे ऐसा कोई विकार उपस्थित नहीं हुआ था जिसे उक्त गाथामे 'सहवियारो हो मासा सुत्तेसु ज जिणे कहियं' इन शब्दोद्वारा सूचित किया गया है-वह अविच्छिन्न चला आया था । परन्तु दूसरे भद्रबाहुके समयमे वह स्थिति नहीं रही थी- कितना ही श्रु नज्ञान लुप्त हो चुका था और जो अवशिष्ट था वह अनेक भापा सूत्रो मे परिवर्तित हो गया था । इससे ६१ वीं गाथाके भद्रबाहु भद्रबाहु द्वितीय ही जान पड़ते हैं । ६२ वीं गाधामे उसी नाम से प्रसिद्ध होने वाले प्रथम भद्रवाहुका जो कि बारह अग और चौदह पूर्व के ज्ञाता श्रुतकेवली थे, अन्त्य मगलके रूपमे जयघोष किया गया और उन्हें साफ तौर पर 'गमकगुरु' लिखा है । इस तरह अन्तकी दोनो गाथाओ मे दो अलग अलग भद्रवाहुओका उल्लेख होना अधिक युक्तियुक्त और वुद्धिगम्य जान पड़ता है
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१०. भावपाहुड ——— १६३ गाथाओ का यह ग्रंथ वडा ही महत्त्वपूर्ण है । इसमे भावकी — चित्तशुद्धिकी - महत्ता की अनेक प्रकार से सर्वोपरि ख्यापित किया गया है । विना भावके बाह्यपरिग्रहका त्याग करके नग्न दिगम्बर साधु तक होने और वनमें जा बैठनेको भी व्यर्थ ठहराया है । परिणामशुद्धि के विना ससार - परिभ्रमण नहीं रुकता और न विना भावके कोई पुरुषार्थ ही सघता है, भावके विना सब कुछ निःसार है इत्यादि अनेक बहुमूल्य शिक्षा एव मर्म की बातोंसे यह ग्रंथ परिपूर्ण है। इसकी कितनी ही गाथाओं का अनुसरण गुणभद्राचार्य ने अपने आत्मानुशासन ग्रंथमे किया है।
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११. मोक्खपाहुड – यह मोक्ष प्राभृत भी बड़ा ही महत्वपूर्ण ग्रंथ है और इसकी गाथा- सख्या १०६ है । इसमे आत्माके बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा ऐसे तीन भेद करके उनके स्वरूपको समझाया है और मुक्ति अथवा परमात्मपद कैसे प्राप्त हो सकता है इसका अनेक प्रकार से निर्देश किया है । इस ग्रंथके कितने ही वाक्योंका अनुसरण पूज्यपाद आचार्य ने अपने 'समाधितत्र' ग्रंथ में किया है ।
इन दंसणपाहुडसे मोक्खपाहुड तकके छह प्राभृत ग्रंथोंपर श्रुतसागर सूरिकी टीका भी उपलब्ध है, जो कि माणिकचन्द-ग्रंथमालाके षट्प्राभृतादिसग्रहमे मूलग्रंथोके साथ प्रकाशित हो चुकी है ।
१ सद्दवियारो हूश्रो भासा - सुत्तेसु जं जिणे कहियं ।
सो तह कहियं गायं सीसेण य भद्दवाहुस्स ॥ ६१ ॥
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