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प्रस्तावना
करके उसे स्वाधीन बनाकर-चक्रवर्तिपदको प्राप्त होता है उसी प्रकार मति-चक्रसे षट् खण्डागमकी साधना करके आप सिद्धान्त-चक्रवर्ती के पदको प्राप्त हुए थे, और इसका उल्लेख उन्होने स्वयं कर्मकाण्डकी गाथा ३६७मे किया हैं। आप अभयनन्दी आचार्यके शिष्य थे, जिसका उल्लेख आपने इस ग्रंथमे ही नहीं किन्तु अपने दूसरे ग्रंथों-त्रिलोकसार
और लब्धिसारमे भी किया है। साथ ही, वीरनन्दी तथा इंद्रनन्दीको भी आपने अपना गुरु लिखा है । ये वीरनन्दी वे ही जान पड़ते हैं जो 'चन्द्रप्रभ-चरित्र' के कर्ता है; क्योकि उन्होंने अपनेको अभयनन्दीका ही शिष्य लिखा है । परन्तु ये इन्द्रनन्दी कौनसे हैं ? इसके विषयमें निश्चयपूर्वक अभी कुछ नहीं कहा जा सकता, क्योकि इन्द्रनन्दी नामके अनेक
आचार्य हुए हैं-जैसे १ छेदपिंड नामक प्रायश्चित्त-शास्त्रके कर्ता, २ अ तावतारके कर्ता, ३ ज्वालामालिनीकल्पके कर्ता, ४ नीतिसार अथवा समयभूषणके कर्ता, ५ सहिताके को। (इनमेसे पिछले दो तो हो नहीं सकते; क्योकि नीतिसारके कर्ताने उन आचार्यों की सूचीमे जिनके रचे हुए शास्त्र प्रमाण हैं नेमिचंद्रका भी नाम दिया है, इसलिये वे नेमिचद्रके बाद हुए हैं और इद्रनन्दि संहितामे वसुनन्दीका भी नामोल्लेख है जिनका समय विक्रमकी प्रायः १२वीं शताब्दी है और इसलिये वे भी नेमिचद्रके बाद हुए हैं । शेषमेसे प्रथम दो ग्रथोके कर्ताओने न तो अपने गुरुका नाम दिया है और न ग्रंथका रचनाकाल ही, इससे उनके विपयमें कुछ नहीं कहा जा सकता। हाँ, ज्वालामालिनीकल्पके कर्ता इंद्रनन्दिने ग्रंथ का रचनाकाल शक संवत ८६१ (वि० स० ६६६) दिया है और यह समय नेमिचंद्रके गुरु इन्द्रनन्दीके साथ बिल्कुल सङ्गत वैठता है, परन्तु इस कल्पके कर्ता इंद्रनन्दीने अपनेको उन वापनन्दीका शिष्य बतलाया है जो वासवनन्दीके शिष्य और इन्द्रनन्दी (प्रथम) के प्रशिष्य थे। बहुत संभव है ये इन्द्रनन्दी बापनन्दीके दीक्षित हों और अभयनन्दीसे उन्होंने सिद्धान्तशास्त्रकी शिक्षा प्राप्त की हो, जो उस समय सिद्धान्त-विषयके प्रसिद्ध विद्वान थे, क्योंकि प्रशस्ति में वापनन्दीकी पुराण-विषयमे अधिक ख्याति लिखी है-सिद्धात विपयमे नहीं
१ जह चक्कण य चक्की छक्खड साहिय अविग्मेण ।
तह मह - चक्केण मया छक्खड साहिय सम्मं ॥३६७।। २ जस्स य पायपसाएणणतससारजाहमुत्तिएणो । वीरिदण दिवच्छों णमामि त अभयण दिगुरु ||४३६।। णमिऊण अभयणदि सुदसागरचारगिंदण दगुरु । वरवीरणदिणाह पयडीण पच्चय वोच्छ । कर्म० ७८५।। इदि णेमिचन्द-मुणिणा अप्पसुदेणभयण दिवच्छेण । रहो तिलोयसारो खमतु त बहुसुदाइरिया || त्रि० १०१८॥ वीरिंदण दिवच्छेणग्यसुदेणभयणाद सिस्सेण । दसण-चरित्त-लद्धी सुसूयिया णेमिचदेण ॥लब्धि० ४४८॥ ३ मुनिजननुतपाद. प्राप्त मिथ्याप्रवादः, सकलगुणसमृद्धस्तस्य शिष्यः प्रसिद्धः। - श्रभवदभयनन्दी जैनधर्माभिनन्दी स्वमहिमजितसिन्धुभव्यलोकेकबन्धुः ॥३॥ भव्याम्भोजविबोधनोद्यतमते स्वत्समान त्विषः शिष्यस्तस्य गुणाकरस्य सुधिय: श्रीवीरनन्दीत्यभूत् । स्वाधीनाखिलवाङ्मयस्य भुवनप्रख्यातकीर्तेः सता ससत्सु व्यजयन्त यस्य जयिनो वाच कुतर्काट् कुशा ॥ ४ ॥
-चन्द्रप्रभचरित-प्रशस्ति । ४ श्रासीदिन्द्रादिदेवस्तुतपदकमलश्रीन्द्रनन्दि नीन्द्रो नित्योत्सर्पच्चरित्रो जिनमत जलधिोनपापोपलेप ।