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प्रस्तावना
१३१ है। और फिर न्यायावतारसूत्र च' इत्यादि श्लोकद्वारा ३२ कृतियोंकी और सूचना की गई है, जिनमेसे एक न्यायावतारसूत्र दूसरी श्रीवीरस्तुति ओर ३० बत्तीस बत्तीस श्लोकोंवाली दूसरी स्तुतियाँ हैं । प्रबन्धचिन्तामणिके अनुसार स्तुतिका प्रारम्भ
"प्रशान्तं दर्शनं यस्य सर्वभूताऽभयप्रदम् ।
मांगल्यं च प्रशस्तं च शिवस्तेन विभाव्यते ॥" __ इस श्लोकसे होता है. जिसके अनन्तर "इति द्वात्रिंशद्वात्रिंशिका कृता" लिखकर यह सूचित किया गया है कि वह द्वात्रिंशद्वात्रिंशिका स्तुतिका प्रथम श्लोक है । इस श्लोक तथा उक्त चारों श्लोकों मेसे किसीसे भो प्रस्तुत द्वात्रिंशिकाओंका प्रारंभ नहीं होता है, न ये श्लोक किसी द्वात्रिंशिकामे पाये जाते हैं और न इनके साहित्यका उपलब्ध प्रथम २० द्वात्रिंशिकाओंके साहित्यके साथ कोई मेल ही खाता है । ऐसी हालतमे इन दोनों प्रबन्धों तथा लिखित पद्यप्रबन्धमे उल्लेखित द्वात्रिंशिका स्तुतियाँ उपलब्ध द्वात्रिंशिकाओसे भिन्न कोई दूसरी ही होनी चाहिये। प्रभावकचरितके उल्लेखपरसे इसका और भी समर्थन होता है; क्योंकि उसमे 'श्रीवीरस्तुति' के बाद जिन ३० द्वात्रिंशिकाओंको "अन्याः स्तुती:" लिखा है वे श्रीवीरमे भिन्न दूसरे हो तीर्थङ्करादिको स्तुतियाँ जान पड़ती हैं और इसलिये उपलब्ध द्वात्रिंशिकाओंके प्रथम अप द्वात्रिंशिकापञ्चकमे उनका समावेश नहीं किया जा सकता, जिस मेकी प्रत्येक द्वात्रिंशिका श्रीवीरभगवानसे ही सम्बन्ध रखती है। उक्त तीनों प्रबन्धों के बाद बने हुए विविध तीर्थकल्प और प्रबन्धकोश (चतुर्विंशतिप्रबन्ध) मे स्तुतिका प्रारम्भ 'स्वयंभुव भूतसहस्रनेत्रं' इत्यादि पद्यसे होता है, जो उपलब्ध द्वात्रिंशिकाओंके प्रथम प्रूपका प्रथम पद्य है, इसे देकर "इत्यादि श्रीवोरद्वात्रिंशद्वात्रिंशिका कृता" ऐसा लिखा है । यह पद्य प्रबन्धवर्णित द्वात्रिंशिकाओंका सम्बन्ध उपलब्ध द्वात्रिशकाओंके साथ जोड़ने के लिये बादको अपनाया गया मालूम होता है; क्योकि एक तो पूर्वरचित प्रबन्धोंसे इसका कोई समर्थन नहीं होता, और उक्त तीनों प्रबन्धोंसे इसका स्पष्ट विरोध पाया जाता है । दूसरे, इन दोनों ग्रंथोंमे द्वात्रिंशद्वात्रिशिकाको एकमात्र श्रीवीरसे सम्बन्धित किया गया है और उसका विपय भी "देवं स्तोतुमुपचक्रमे" शब्दोंके द्वारा 'स्तुति' ही बतलाया गया है; परन्तु उस स्तुतिको पढ़नेसे शिवलिंगका विस्फोट होकर उसमेसे वीरभगवानकी प्रतिमाका प्रादुर्भूत होना किसी प्रथमें भी प्रकट नहीं किया गया-विविध तीर्थकल्पका कर्ता आदिनाथकी और प्रबन्धकोश का कर्ता पाश्वनाथकी प्रतिमाका प्रकट होना बतलाया है। और यह एक असंगत-सी बात जान पड़ती है कि स्तुति तो किसी तीर्थकरकी की जाय और उसे करते हुए प्रतिमा किसी दूसरे ही तीर्थकरकी प्रकट होवे।
इस तरह भी उपलब्ध द्वात्रिशिकाओंमे उक्त १४ द्वात्रिंशिकाए, जो स्तुतिविषय तथा वीरकी स्तुतिसे सम्बन्ध नहीं रखती, प्रबन्धवर्णित द्वात्रिंशिकाओंमे परिगणित नहीं की जा सकतीं। और इसलिये पं० सुखलालजी तथा पं० बेचरदासजीका प्रस्तावनामे यह लिखना कि शुरुआतमे दिवाकर (सिद्धसेन) के जीवन वृत्तान्तमे स्तुत्यात्मक बत्तीसियो (द्वात्रिशिकाओं) को ही स्थान देनेकी जरूरत मालूम हुई और इनके साथमे सस्कृत भाषा तथा पद्यसंख्यामें समानता रखनेवाली परन्तु स्तुत्यात्मक नहीं ऐसी दूसरी घनी बत्तीसियाँ इनके - जीवनवृत्तान्तमें स्तुत्यात्नक कृतिरूपमे ही दाखिल होगई और पीछे किसीने इस हकीकतको देखा तथा खोजा ही नहीं कि कही जानेवाली बत्तीस अथवा उपलब्ध इक्कीस बत्ती सियोंमे नो वाद्भुतमुलूकस्य प्रकृत्या क्लिष्टचेतसः । स्वच्छा अपि तमस्त्वेन भासन्ते भास्वतः करा. ॥ १४२ ।। लिखित पद्यप्रबन्धमें भी ये ही चारों श्लोक 'तस्सागयस्स तेण पारद्धा जिणथुई' इत्यादि पद्यके अनन्तर 'यथा' शब्दके साथ दिये हैं।-(स. प्र. पृ. ५४ टि० ५८)