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प्रत्वावना
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इस तरह सिद्धतेनके सनयकी पूर्व सीमा विक्रमकी छठी शताब्दीका तृतीय चरण और उचरसीना विकलकी सातवीं शताब्दीका तृतीय चरण (वि० सं० ५६२ ते ६६६) निश्चित होती है। इन प्रायः सौ वर्षके भीतर ही किसी समय सिद्धसेनका प्रन्धकाररूपमे अवतार हुआ और यह अन्य बना जान पड़ता है ।
(३) सिद्धसेन के समय - सम्बन्धमे पं० सुखलालजी संघवीकी जो स्थिति रही है उसको ऊपर बतलाया जा चुका है। उन्होने अपने पिछले लेखमे, जो 'सिद्धसेनदिवाकरना समयनो प्रश्न' नानते भारतीयविद्या के तृतीय भाग (श्रीवहादुरसिहजी सिघी स्मृतिमन्य) मे प्रकाशित हुआ है. अपनी उस गुजराती प्रस्तावना - कालीन मान्यताको जो सन्मतिके अग्रेजी संस्करणके अवसरपर फोरवर्ड (foreword ) ' लिखे जानेके पूत्र कुछ नये बौद्ध मन्धोके सामने आनेके कारण बदल गई थी और जिसकी फोरवर्डमे सूचना की गई है फिरसे निश्चितरूप दिया हैं अर्थात् विक्रमको पाँचवी शताब्दीको ही सिद्धसेनका समय निर्धारित किया है और उसीको अधिक सङ्गत बतलाया है । अपनी इस मान्यताकके समर्थनमे उन्होने जिन दो- प्रमाणोंका उल्लेख किया है उनका सार इस प्रकार है, जिसे प्रायः उन्हीके शब्दो के अनुवादरूपमें सङ्कलित किया गया है:
(प्रथम) जिनभद्र क्षमाश्रमणने अपने महान् प्रन्थ विशेषावश्यक भाष्यमे, जो विक्रम सवत् ६६६में वनकर समाप्त हुआ है, और लघुग्रन्थ विशेषणवतीमे सिद्धसेनदिवाकरके उपयोगाऽभेदवादकी तथैव दिवाकरेकी कृति सन्मतितर्कके टीकाकार मल्लवादीके उपयोग- योगपद्यवादकी विस्तृत समालोचना की है । इससे तथा मल्लवादीके द्वादशारनयचक्र के उपलब्ध प्रतीकोमें दिवाकरका सूचन मिलने और जिनभद्रगणिका सूचन न मिलनेसे मल्लवादी जिनभद्र से पूर्ववर्ती और सिद्धसेन मल्लवादीसे भी पूर्ववर्ती सिद्ध होते है । मल्लवादी को यदि विक्रमी छठी शताब्दी के पूर्वाधमें मान लिया जाय तो सिद्धसेन दिवाकरका समय जो पॉचवी शताब्दी निर्धारित किया गया है वह अधिक सङ्गत लगता है ।
(द्वितीय) पूज्यपाद देवनन्दीने अपने जैनेन्द्रव्याकरणके 'वेत्तेः सिद्धसेनस्य' इस सूत्रमें सिद्धसेनके मतविशेषका उल्लेख किया है और वह यह है कि सिद्धसेन के मतानुसार ‘विदु' धातुके र' का आगम होता है, चाहे वह धातु सकर्मक ही क्यों न हो । देवनन्दीका यह उल्लेख बिल्कुल सच्चा है, क्योंकि दिवाकरकी जो कुछ थोड़ीसी संस्कृत कृतियाँ बची है उनमे से उनकी नवमी द्वात्रिंशिकाके २२वें पद्यमे 'विद्रतेः' ऐसा 'र' आगम वाला प्रयोग मिलता है । अन्य वैयाकरण जब ‘सम्’' उपसर्ग पूर्वक और अकर्मक 'विद्' धातुके 'र्' आगम स्वीकार करते हैं तब सिद्धसेनने अनुपसर्ग और सकर्मक 'विद्' धातुका 'र्' आगमवाला प्रयोग किया है । इसके सिवाय, देवनन्दी पूज्यपाद की सर्वार्थसिद्धि नामक तत्त्वार्थ- टीका सप्तम अध्यायगत १३वें सूत्रकी टीकामे सिद्धसेन दिवाकरके एक पद्यका अश उक्तं च' शब्दके साथ उद्धृत पाया जाता है और वह है "वियोजयति चासुभिर्न च वधेन संयुज्यते ।" यह पद्यांश उनकी तीसरी द्वात्रिशिका के १६वें पद्यका प्रथम चरण है । पूज्यपाद देवनन्दीका समय वर्तमान मान्यतानुसार विक्रमकी छठी शताब्दीका पूर्वार्ध है अर्थात् पाँचवीं शताब्दी के अमुक भागसे छठी शताब्दी के अमुक भाग तक लम्बा है। इससे सिद्धसेनदिवाकरकी पाँचवी शताब्दी में, होने की बात जो अधिक सङ्गत कही गई है उसका खुलासा हो जाता है । दिवाकरको देवनन्दी से
फोरवर्ड के लेखकरूपमें यद्यपि नाम 'दलसुख मालवरिया' का दिया हुआ है परन्तु उसमे दी हुई उक्त सूचनाको पण्डितः सुखलालजीने उक्त लेखमें अपनी ही सूचना और अपना ही विचार परिवर्तन स्वीकार किया है ।