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पुरातन जैनवाक्य सूची
ऐसी हालतमे युगपत्वाद की सर्वप्रथम उत्पत्ति उमास्वाति से बतलाना किसी तरह भी युक्तियुक्त नहीं कहा जा सकता, जैनवाडमय में इसकी अविकल धारा अतिप्राचीन कालसे चली आई है। यह दूसरी बात है कि क्रम तथा अभेदकी धाराएँ भी उसमे कुछ वादको शामिल होगई हैं, परन्तु विकास क्रम युगपत्वादसे ही प्रारम्भ होता है जिसकी सूचना विशेषणवतीकी उक्त गाथाओ ('केई भरगति जुगवं ' इत्यादि) से भी मिलती है । दिगम्बराचार्य श्रीकुन्दकुन्द, समन्तभद्र और पूज्यपाद के ग्रन्थोमे क्रमवाद तथा अभेदवादका कोई ऊहापोह अथवा खण्डन न होना पं० सुखलालजीको कुछ अखरा है, परन्तु इसमे अखरने की कोई बात नही है । जब इन आचार्योंके सामने ये दोनों वाद आए ही नहीं तब वे इन वादोका ऊहापोह अथवा खण्डनादिक कैसे कर सकते थे ? अकलङ्कके सामने जब ये वाद आए तब उन्होने उनका खण्डन किया ही है; चुनाचे पं० सुखलालजी स्वयं ज्ञानविन्दुके परिचयमे यह स्वीकार करते हैं कि "ऐसा खण्डन हम सबसे पहले अकलङ्ककी कृतियोंमें पाते हैं।" और इसलिये उनसे पूर्वकी - कुन्दकुन्द समन्तभद्र तथा पूज्यपादकी – कृतियोंमे उन वाढोंकी कोई चर्चाका न होना इस बात को और भी साफ तौरपर सूचित करता है कि इन दोनों वादोकी प्रादुर्भूति उनके समय बाद हुई है। सिद्धसेनके सामने ये दोनो वाद थे— दोनोंकी चर्चा सन्मतिमे की गई है— अतः ये सिद्धसेन पूज्यपाद के पूर्ववर्ती नहीं हो सकते । पूज्यपादने जिन सिद्धसेनका अपने व्याकरणमे नामोल्लेख किया है वे कोई दूसरे ही सिद्धसेन होने चाहिये । यहाँपर एक खास बात नोट किये जानेके योग्य है और वह यह कि प० सुखलालजी सिद्धसेनका पूज्यपादसे पूर्ववर्ती सिद्ध करनेके लिये पूज्यपादीय जैनेन्द्र व्याकरणका उक्त सूत्र तो उपस्थित करते हैं परन्तु उसी व्याकरण के दूसरे समकक्ष सूत्र "चतुष्टयं समन्तभद्रस्य " को देखते हुए भी अनदेखा कर जाते हैं - उसके प्रति गजनिमीलन- जैसा व्यवहार करते हैं - और ज्ञानविन्दुकी परिचयात्मक प्रस्तावना ( पृ० ५५ ) मे विना किसी हेतुके ही यहाँ तक लिखनेका साहस करते हैं कि "पूज्यपादके उत्तरवर्ती दिगम्बराचार्य समन्तभद्र" ने अमुके उल्लेख किया। साथ ही, इस बातको भी भुला जाते हैं कि सन्मतिकी प्रस्तावना वे स्वय पूज्यपादको समन्तभद्रका उत्तरवर्ती बतला आए है और यह लिख आए हैं कि 'स्तुतिकाररूपसे प्रसिद्ध इन दोनों जैनाचार्यों का उल्लेख पूज्यपादने अपने व्याकरणके उक्त सूत्रोमे किया है, उनका कोई भी प्रकारका प्रभाव पूज्यपादकी कृतियोंपर होना चाहिये ।' मालूम नही फिर उनके इस साहसिक कृत्यका क्या रहस्य है । और किस अभिनिवेशके वशवर्ती होकर उन्होने अब यों ही चलती कलमसे समन्तभद्रको पूज्यपादके उत्तरवर्ती कह डाला है | इसे अथवा इसके श्रीचित्यको वे ही स्वय समझ सकत हैं। दूसरे विद्वान् तो इसमे कोई औचित्य एवं न्याय नही देखते कि एक ही व्याकरण ग्रन्थमे उल्लेखित दो विद्वानोंमेंसे एकको उस प्रन्थकारके पूर्ववर्ती और दूसरेको उत्तरवर्ती बतलायां जाय और वह भी विना किसी युक्ति के | इसमे सन्देह नहीं कि पण्डित सुखलालजीकी बहुत पहलेसे यह धारणा बनी हुई है कि सिद्धसेन समन्तभद्रके पूर्ववर्ती हैं और वे जैसे तेसे उसे प्रकट करने के लिये कोई भी अवसर चूकत नहीं है। हो सकता है कि उसीकी धुनमे उनसे यह कार्य बन गया हो, जो उस प्रकटीकरणका ही एक प्रकार है, अन्यथा वैसा कहने के लिये कोई भी युक्तियुक्त कारण नहीं है ।
पूज्यपाद समन्तभद्रके पूर्ववर्ती नहीं किन्तु उत्तरवर्ती हैं, यह बात जैनेन्द्रव्याकरण के उक्त “चतुष्टय समन्तभद्रस्य " सूत्रसे ही नहीं किन्तु श्रवणबेलगोलके शिलालेखों आदि भी भले प्रकार जानी जाती है: । पूज्यपादकी 'सर्वार्थसिद्धि पर समन्तभद्रका स्पष्ट प्रभाव है, इसे
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- १ देखो, श्रवणवेल्गोल- शिलालेख न० ४० (६४), १०८ (२५८), 'स्वामी समन्तभद्र' (इतिहास) पृ० १४११४३; तथा 'जैननगत' वर्ष ६ १५-१६मे प्रकाशित 'समन्तभद्रका समय और डा० के० बी०