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पुरातन जैनवाक्य-सूची
२ व पंचमकारा काउस्सग्गम्मि होति एगम्मि । एदेहिं बारसेहिं उववासो जायदे एक्को ॥ १० ॥ ३ जावदिया अविसुद्धा परिणामा तेत्तिया श्रदीचारा । को ताण पायच्छित्तं दाऊं काउं च सक्केज्जो ॥ ३५४ ॥ - छेद पिण्ड
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दोनों ग्रन्थोंके इन वाक्योंकी तुलनापरसे ऐसा मालूम होता है कि छेदशास्त्रसे छेदपिण्ड कुछ उत्तरवर्ती कृति है; क्योंकि उसमें छेदशास्त्र के अनुसरणके साथ पहली गाथामें प्रायश्चित्तके नामोंमें कुछ वृद्धि की गई है, दूसरी गाथामें 'गवकारा' पदको 'पंचणमोक्कारा' पदके द्वारा स्पष्ट किया गया है और तीसरी गाथा में 'परिणामा' पदके पूर्व 'अविसुद्धा' विशेषण लगाकर उसके आशयको व्यक्त किया गया और 'अवराहा' पदके स्थानपर 'अदीचारा' जैसे सौम्य पदका प्रयोग करके उसके भावको सूचित किया गया है । ५४. भावत्रिभंगी ( भाव संग्रह ) – इस ग्रंथका नाम 'भावसंग्रह' भी है, जो कि अनेक प्राचीन तडपत्रीय आदि प्रतियोंमे पाया जाता है । मूलमें 'मूलुत्तरभावसरूवं पवक्खामि' (गा. २), 'इदि गुणमग्गठाणे भावा कहिया (गा. ११६), इन प्रतिज्ञा तथा समाप्तिसूचक वाक्यों से भी यह भावोंका एक संग्रह ही जान पड़ता है - भावोंको अधिकांश में तीन भंग कर के कहनेसे 'भावत्रिभगी' भी इसका नाम रूढ हो गया है। इसमें जीवोंके १ श्रपशमिक, २ क्षायिक, ३ क्षायोपशिक, ४ औदयिक और ५ पारिणामिक ऐसे पाँच मुलभावों और इनके क्रमशः २, ६, १८, २१, ३ ऐसे ५३ उत्तरभावों का वर्णन किया गया है । और अधिकांश वर्णन १४ गुणस्थानों तथा १४ मार्गणाओं को दृष्टिको लिये हुए हैं । ग्रंथ अप विषयका अच्छा महत्वपूर्ण है और उसकी प्रशस्ति-सहित कुल गाथा संख्या १२३ (११६४७) है। माणिकचन्द्रग्रन्थमालामे मूलके साथ प्रशस्ति मुद्रित नहीं हुई है । उसे मैंने आरा जैनसिद्धांतभवनकी एक ताडपत्रीय प्रति परसे मालूम करके उसकी सूचना ग्रंथमालाके मंत्री सुदूर पं० नाथूरामजी प्रेमीको की थी और इसलिये उन्होंने 'प्रन्थपरिचय' नामकी अपनी प्रस्तावना उसे दे दिया है । वहु प्रशस्ति, जिससे प्रन्थकार श्रुतमुनिका और उनके गुरुवोंका अच्छा परिचय मिलता है, इस प्रकार हैं:
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"अणुवद-गुरु- बालेंद्र महव्वदे श्रमचंद सिद्धति ।
सत्थेऽभयसूरि-पहाचंदा खलु सुयमुणिस्स गुरू ॥ ११७ ॥ सिरिमूलसंघदेसिय[गण] पुत्थयगच्छ कोंडकुंद मुहिं (कुंदाणं ?) परमरण इंगलेस लिम्मि जाद [स] मुण पहद (हाण) स्स ॥ ११८ ॥ सिद्धताऽयचंदस् य सिस्सो बालचंदमुखिपवरो । सोभविकुवलयाणं आणंद करो सया जयऊ ॥ ११६ ॥ सद्दागम-परमागम-तक्कागम-निरवसेसवेदी हु
विजिद सयलरणवादी जयउ चिरं अभयसूरिसिद्धंति ॥ १२० ॥ य-वि-माणं जाणित्ता विजिद सयल-परसमयी । चर-णिवइ-णिवह-वांदय- पय-पम्मो चारुकित्तिमुखी ॥ १२१ ॥ णादणिखिलत्थसत्यो सयलरिंदेहिं पूजिओ विमलो । जि-मग्ग-गय-सूरो जयउ चिरं चारुकित्तिमुखी ॥ १२२ ॥