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पुरातन-जैनवाक्य-सूची इस ग्रंथके कर्ता, ७८वीं गाथामें आए हुए 'जिणइंदेण पउत्त' वाक्यके अनुसार, 'जिनेन्द्र' नामके कोई साधु अथवा आचार्य मालूम होते हैं, जो आगम-भक्तिसे युक्त थे और जिन्होंने अपने आपको प्रवचन (आगम), प्रमाण (तर्क), लक्षण (व्याकरण), छन्द और अलंकारसे रहित-हृदय बतलाया है, और इस तरह इन अगाध और अपार शास्त्रोमें अपनी गतिको अधिक महत्व न देकर अपनी विनम्रताको ही सूचित किया है। ग्रंथकारने अपने गुरु
आदिका और कोई परिचय नहीं दिया और इसी लिये इनके विषय में ठीक तौरपर अभी कुछ कहना सहज नहीं है।
पंडित नाथूरामजी प्रेमीने, 'प्रथकर्ताओंका परिचय' नामकी प्रस्तावनामें, इस ग्रंथ का कर्ता जिनचन्द्राचार्यको बतलाया है और फिर जिनचन्द्राचार्य के विपयमें यह कल्पना की है कि वे या तो तत्त्वार्थसूत्रकी सुखबोधिका-टीकाके कर्ता भास्करनन्दीके गुरु निनचन्द्र होगे और या धर्मसंग्रहश्रावकाचारके कर्ता पं० मेधावीके गुरु जिनचन्द्र होंगे, दोनोंकी संभावना है, दोनों सिद्धान्तशास्त्रके पारंगत अथवा सैद्धान्तिक विद्वान थे। और दोनों में भी अधिक संभावना पं० मेधावीके गुरु जिनचन्द्रकी बतलाई है क्योंकि इस ग्रंथपर भ० ज्ञानभूषणकी एक संस्कृत टीका है, जो कि पं० मेधावीके गुरु जिनचन्द्रके कुछ ही पीछे प्रायः समकालीन हुए हैं, इसीसे उन्हें इस ग्रंथपर टीका लिखनेका उत्साह हुआ होगा। और इसलिये प्रेमीजीने इस ग्रन्थकी रचनाका समय भी वि० सं० १५१६ के लगभगका अनुमान किया है, जिस सम्वत्में पं० मेधावीने त्रैलोक्यप्रज्ञप्ति' की एक दानप्रशस्ति लिखी है, जिससे उस समय उनके गुरु जिनचन्द्रका अस्तित्व जाना जाता है।
____यहांपर इतना और भी जान लेना चाहिये कि ग्रन्थकी आदिमें 'श्रीजिनेन्द्राचार्यप्रणीतः' विशेपणके द्वारा ग्रन्थका कर्ता जिनेन्द्राचार्यको ही सूचित किया है, परन्तु उक्त प्रस्तावनामें प्रेमीजीने लिखा है कि "प्रारम्भमे जिनेन्द्राचार्य' नाम सशोधककी भूलसे मुद्रित होगया है।" और संशोधक एव सम्पादक पं० पन्नालालसोनीने ग्रंथके अन्तमे एक फुटनोट द्वारा अपनी भूलको स्वीकार भी किया है। साथ ही, यह भी व्यक्त किया है कि किसी दूसरी मूलपुस्तकको देखकर उनसे यह भूल हुई है। और इसपरसे यह फलित होता है कि मूल पुस्तकमे ग्रंथकतांका नाम 'जिनेन्द्राचार्य उपलब्ध है, टीकामें चूंकि 'जिनइदेण' का अर्थ 'जिनचन्द्रनाम्ना' किया गया है इसीसे सम्पादकजीने मूलपुस्तकमे 'जिनेन्द्राचार्य' नाम होते हुए भी, अपनी भूल स्वीकार कर ली है और साथ ही उस पुस्तक (प्रति) लेखककी भी भूल मान ली है । परन्तु मेरी रायमें जिसे टीकापरसे 'भूल"मान लिया गया है वह वास्तवमें भूल नहीं है, बल्कि टीकाकारकी ही भूल है। क्योंकि 'इदेण' पदका अर्थ 'चन्द्रण' घटित नहीं होता किन्तु 'इन्द्रण' होता है और पूर्व में 'जिन' शब्दके लगनेसे 'जिनेन्द्रण' होजाता है।
देण' पदका अर्थ 'चंद्रोण' तभी हो सकता है जब 'इंद' का अर्थ 'चन्द्र' हो; परन्तु 'इंद' का अर्थ चन्द्र न होकर इन्द्र होता है, चन्द्र अर्थ 'इदु' शब्दका होता है-'इन्द्र' का नहीं। शायद 'इंदु' शब्दकी कल्पना करके ही 'ईदेण' पदका अर्थ चद्रण किया गया हो, परन्तु इंदका तृतीयाके एकवचनमे रूप 'इदेण' नहीं होता किन्तु 'इंदुणा' होता है. और यहां स्पष्टरूपसे 'इंदेण' पदका प्रयोग है जिससे उसे 'ईदु'शब्दका तृतीयान्तरूप नहीं कहा जासकता।
और इसलिये उससे चन्द्र अर्थ नहीं निकाला जासकता। चुनाँचे इस ग्रथकी कनडी टीकाटिप्पणी में भी 'जिनेन्द्रदेवाचार्य' नाम दिया है। यदि प्रथकारको यहा चन्द्र अर्थ विवक्षित होता तो वे सहजमे ही 'जिनडदेण' की जगह जिनचंदेण' पद रख सकते थे और यदि 'जिनेन्ट' जैसे नामके लिये इन्दु शब्द ही विवक्षित होता तो वे उक्त पदको जिणइंदुणा' का रूप दे सकते थे, जिसके लिये छन्दकी दृष्टि से भी कोई वाघा नहीं थी। परन्तु ऐसा कुछ भी "प्रारंभे हि जिनेन्द्राचार्य इति विस्मृत्य लिखितोऽस्माभिरन्यन्मूलपुस्तकं विलोक्य ।-सं०।"