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पुरातन जैनवाक्य-सूची
प्रभावको निराकृत करनेवाले लिखा है । और इसलिये यह ग्रंथ भी विक्रमको १४वीं शताब्दी है
की रचना
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५६. परमागमसार - यह ग्रंथ भी भावत्रिभंगी ( भावसंग्रह) के कर्ता श्रु तमुनिकी कृति है, और इसकी गाथासंख्या २३० है । वाक्यसूचीके समय यह ग्रंथ सामने नहीं था और इसलिये इसकी गाथाओंको सूचीमे शामिल नहीं किया जा सका। इस ग्रंथ अधिकार हैं-१ पंचास्तिकाय, २ पट्टद्रव्य, ३ सप्ततत्त्व, ४ नवपदार्थ, ५ वन्ध, ६ वन्धुकारण, ७ मोक्ष और मोक्षकारण' । और उनमे संक्षेपसे अपने अपने विपयका क्रमशः अच्छा वर्णन है । यह ग्रंथ मँगसिर सुदि सप्तमी शक संवत् १२६३ को गुरुवार के दिन बन कर समाप्त हुआ है; जैसा कि उस गाथासे प्रकट है जो भावत्रिभंगी (भावसग्रह) के प्रकरण मैं उधृत की गई है । और जिसके अनन्तर चारुकीर्ति - विषयक दूसरी गाथाको छोड़कर, शेप सब प्रशस्ति वही दी हुई है जोकि भावसंग्रहकी ताड़पत्रीय प्रतिमे पाई जाती है और जिसे भावत्रिभंगी (भावसंग्रह) के प्रकरण मे ऊपर उधृत किया जा चुका है । अस्तु, यह ग्रंथ ऐलक-पन्नालाल सरस्वती-भवन बम्बई में मौजूद है । उसे देखकर अगस्त सन् १६२८ मे जो नोट लिये गये थे उन्ही के आधारपर यह परिचय लिखा गया है ।
५७. कल्याणालोचना - यह ५४ पद्यों में वर्णित ग्रंथ आत्मकल्याणकी आलोचनाको लिये हुए है । इसमे आत्मसम्वोधन रूपसे अपनी भूलो- गलतियो अपराधों की चिन्ता- विचारणा करते हुए अपनेसे जो दुष्कृत बने हैं, जिन-जिन जीवादिकोंकी जिस निस प्रकार से विराधना हुई है उन सबके लिये खेद व्यक्त किया है और 'मिच्छा मे दुक्कडं. हुज्ज' जैसे शब्दों द्वारा उन दुष्कृतोंके मिथ्या होनेकी भावना की है । अपने स्वभावसिद्ध निर्वि कल्पज्ञान-दर्शनादिरूप एक आत्माको अथवा एक परमात्माको ही अपना शरण्य माना है. और 'अणोरण मज्झ सरणं सरणं सो एक्क परमप्पा' जैसे शब्दों उसकी बार बार घोषणा की है । स'थ ही, जिनदेव - जिनशासन में मति और संन्यास के साथ मरणको अपनी सम्पत् माना है। और अन्त में 'एवं आराहतो आलोयण-वंदणा-पडिक्कमणं' जैसे शब्दोंद्वारा अपने इस सब कृत्यको आलोचन, वन्दना तथा प्रतिक्रमणरूप धार्मिक क्रियाक आराधन बतलाया है । ग्रंथ साधारण है और सरल है ।
प्रन्धकारने ग्रंथकी अन्तिम गाथा में, 'णिद्दिट्ठ अजिय-बंभेण' इस वाक्यके द्वारा, अपना नाम 'जितब्रह्म' सूचित किया है- और कोई विशेष परिचय अपना नहीं दिया । इससे ग्रंथकार के विषयमें अधिक कुछ नहीं कहा जा सकता । हाँ, ब्रह्मजितका बनाया हुआ एक 'हनुमच्चरित' जरूर उपलब्ध है, जिसे उन्होंने देवेन्द्रकी र्तिके शिष्य भ० विद्यानन्दिके आदेश से भृगुकच्छ नगर में रचा है । और उससे मालूम होता है कि ब्रह्मजितं भ० देवेन्द्रकीर्तिके शिष्य थे, उनके पिताका नाम वीरसिंह', माता का नाम 'वीधा' या 'पृथ्वी' ( दो प्रतियोंमें दो प्रकारसे ) और वंशका नाम 'गोलशृङ्गार' (गोलसिंघाड ) था । और इससे वे विक्रमकी १६ वीं शताब्दी के विद्वान हैं; क्योकि भट्टारक देवेन्द्रकीर्ति और विद्यानदिका यही समय पाया जाता है | बहुत संभव है कि दोनों ग्रंथों के कर्ता ब्रह्मजित एक ही हो, यदि ऐसा है तो इस ग्रंथको विक्रमकी १६वीं शताब्दीकी कृति समझना चाहिये ।
५८. श्रङ्गप्रज्ञप्ति—यह ग्रंथ द्वादशाङ्गश्रुतकी प्रज्ञापनाको लि
जिनेन्द्रकी द्वादशाङ्ग वाणी के ११ अह्नों और १४ पूर्वी के स्वरूप, विषय, भेद और पदसंख्यादिका वर्णन है। आदि तीर्थंकर श्रीवृषभदेवकी वाणी से कथनके प्रसंगको उठाया गया. V पंचत्थिकाय दव्वं छक्कं तच्चाणि सत्त य पदत्था । यव बन्धो तक्कारण मोक्खो तक्कारणं चेदि ॥ ६ ॥ यो वि जिवयण - णिरुविदो सवित्थर दो । वोच्छामि सम | सेण य सुरण्य जरणा दत्त चित्ता हु ॥ १० ॥