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पुरातन जैनवाक्य-सूची
यह सुदर्शनचरित्र विक्रमसंवत् ११०० में धारानगरी में बनकर समाप्त हुआ है, जब कि भोजराजाका वहाँ राज्य था । और इससे रामनन्दी विक्रम सं० ११०० से कुछ पूर्व के अर्थात् विक्रमकी ११वीं शताब्दी के उत्तरार्ध के विद्वान जान पड़ते हैं। बहुत संभव है कि ये ही रामनन्दी वे रामनन्दी हों जिनके प्रसादसे ब्रह्म हेमचंद ने इस श्रुतस्कन्ध ग्रंथकी रचना की है। यदि ऐसा है तो यह कहना होगा कि ब्रह्महेमचंद विक्रमकी ११वीं शताब्दी के उत्तरार्ध के विद्वान थे और उसी समयकी उनकी यह रचना है ।
इसका
५१. ढाढसीगाथा - यह एक औपदेशिक अध्यात्मविषयका ग्रंथ है, जिसकी गाथासंख्या ३६ बतलाई गई है; परन्तु माणिकचंद्र प्रथमालाकी प्रकाशित प्रतिमें वह ३८ पाई जाती है। मूलमें ग्रंथ और ग्रंथकर्ताका कोई नाम नहीं । अन्त में ' इति ढाढसी गाथा समाप्ता' लिखा है । 'ढाढसीगाथा' यह नामकरण किस दृष्टिको लेकर किया गया है। कुछ पता नहीं । इसके कर्ता कोई काष्ट संघी आचार्य हैं ऐसा पं० नाथूराम जी प्रेमीने व्यक्त किया है और वह ग्रंथ मे आए हुए 'कट्ठो वि मूलसंघो' (काष्ठासंघ भी मूलसंघ है) जैसे शब्दों परसे अनुमानित जान पड़ता है, परन्तु 'पिच्छे गहु सम्मत्तं करगहिए चमर - मोरडंबरए' जैसे वाक्योंपर से उसके कर्ता निःपिच्छसंघ अर्थात् माथुरसंघ के आचार्य भी हो सकते हैं । और यह भी हो सकता है कि वे संघवादकी कट्टरता से रहित कोई तटस्थ विद्वान् हों । अस्तु । प्रथमें मनको रोकने, कषायोंको जीतने और आत्मध्यान करनेकी प्रेरणा की गई है और लिखा है कि 'संघ कोई भी पार नहीं उतारता, चाहे वह काष्ठासंघ हो, मूलसंघ हो अथवा निःपिच्छसंघ हो; बल्कि आत्मा ही आत्माको पार उतारता है, इसलिये आत्माका ध्यान करना चाहिये । उसके लिये अर्हन्तों और सिद्धोंके ध्यानको उपयोगी बतलाया
और उनकी प्रतिष्ठित मूर्तियोंको, चाहे वे मरिण रत्न - धातु- पाषाण और काष्ठादि में से किसीसे भी बनी हों, सालम्ब ध्यानके लिये निमित्तकारण बतलाया है । और अन्त में ग्रन्थका फल बन्ध मोक्षको जानना तथा ज्ञानमय होना निर्दिष्ट किया है । इसी उद्देश्यको लेकर वह रचा गया है । ग्रन्थकी आदि में कोई मंगलाचरण नहीं है ।
ग्रन्थ में बननेका कोई समय न होनेसे यह नहीं कहा जा सकता कि वह कब रचा गया है । इसकी एक गाथा षट्प्राभृत की टीका में "निष्पिच्छिका मयूरपिच्छादिकं न मन्यन्ते । उक्त' च ढाढसीगाथासु” इन वाक्योंके साथ निम्नरूप में पाई जाती है :
पिच्छे हु सम्मत्तं करगहिए मोरचमरडंवरए । अप्पा तारइ अप्पा तम्हा अप्पा विकायचो ॥ १ ॥
इसका पूर्वार्ध ढाढसीगाथा नं० २८ का पूर्वार्ध है, जिसका उत्तरार्ध है - ' समभावे जिणदिट्ठ रायाईदोसचते" और इसका उत्तरार्ध ढाढसीगाथा नं० २० का उत्तरार्ध हैं, जिसका पूर्वार्ध है-“सघो को विग तारइ कट्टो मूलो तहेव शिपिच्छो ।" इसी से पूर्वार्धं और उत्तरार्ध यहाँ संगत मालूम नहीं होते । परन्तु टीकाके उक्त उल्लेख से यह स्पष्ट है कि ढाढसीगाथा पटप्राभूतकी टीकासे पहलेकी रचना है । षटुप्राभतटीकाके कर्ता श्रुतसागरसूरि विक्रमकी १६ वीं शताब्दी के विद्वान हैं और इसलिये यह मंथ १६वीं शताब्दीसे पहले का बना हुआ है, इतना तो सुनिश्चित है, परन्तु कितने पहलेका ? यह अभी निश्चितरूपसे नहीं कहा जा सकता ।
महापश्रो तस्स माणिक्करणदी भुयगप्पा हमो णामछदी | पदमसीसु तो जायउ जगविक्वायड मुणिरायण दिणदिउ ॥ trafireमकालदो ववगएसु एयारह संवच्छुरससु ॥ ६ ॥ तहिं केवलचरिउ मच्छरेण यदि विरइउ वत्थरेगा ।
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