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पुरातन- जैनवाक्य-सूची
कर्मकाण्डके द्वितीय अधिकारकी (नं० १२७ से १४५, १६३, १८०, १८१, १८४) तथा ११ गाथाएं छठे अधिकारकी (नं० ८०० से ८१० तक) भी उसमें और अधिक पाई जाती है, जिन्हें पण्डित परमानन्दजीने अधिकार-भेद से गाथा-संख्या के कुछ गलत उल्लेखके साथ स्वयं स्वीकार किया है, परन्तु प्रकृतिसमुत्कीर्तन अधिकार मे उन्हें शामिल करनेका सुभाव नहीं रखा गया । दोनों के एक होनेकी दृष्टिसे यदि एककी कमीको दुसरे से पूरा किया जाय और इस तरह 'प्रकृतिसमुत्कीर्तन' अधिकारकी उक्त ३५ गाथाओंको कर्मप्रकृतिमे शामिल करानेके साथ-साथ कर्मप्रकृतिकी उक्त ३४ (२३ + ११) गाथाओं को भी प्रकृतिसमुत्की तन में शामिल करानेके लिये कहा जाय अर्थात् यह प्रस्ताव किया जाय कि 'ये ३४ गाथाएं चूकि कर्मप्रकृतिमे पाई जाती हैं, जो कि वास्तवमे कर्मकाण्डका प्रथम अधिकार है 'प्रथम अश' आदिरूपसे उल्लेखित भी मिलता है, इसलिये इन्हें भो वर्तमान कर्मकाण्डके 'प्रकृतिसमुत्कीर्तन' अधिकारमे त्रुटित समझा जाकर शामिल किया जाय' तो यह प्रस्ताव बिल्कुल ही असगत होगा; क्योकि ये गाथाएं कर्मकाण्डके 'प्रकृतिसमुत्कीर्तन' अधिकारके साथ किसी तरह भी सगत नहीं है और साथ ही उसमे अनावश्यक भी हैं । वास्तव में ये गाथाएं प्रकृतिसमुत्कीर्तन से नहीं किन्तु स्थिति बन्धादिकसे सम्बन्ध रखती हैं, जिनके लिये ग्रन्थकारने ग्रन्थमे द्वितीयादि अलग अधिकारोकी सृष्टि की है । और इसलिये एक योग्य ग्रन्थकारके लिये यह संभव नहीं कि जिन गाथाओ को वह अधिकृत अधिकार में रक्खे उन्हें व्यर्थ ही अनधिकृत अधिकार मे भी डाल देवे । इसके सिवाय, कर्मप्रकृतिमे. जिसे गोम्मट - सारके कर्मकाण्डका प्रथम अधिकार समझा और बतलाया जाता है, उक्त गाथाओंका देना प्रारम्भ करनेसे पहले ही 'प्रकृतिसमुत्कार्तन' के कथनको समाप्त कर दिया है - लिख दिया है " इति पर्याडसमुक्कित्तणं समत्तं ||" और उसके अनन्तर तथा 'तीसं कोडाकोडी' इत्यादि गाथाको देनेसे पूर्व टीकाकार ज्ञानभूपरणने साफ लिखा है:
" इति प्रकृतीनां समुत्कीर्तनं समाप्त ॥ श्रथ प्रकृतिस्वरूपं व्याख्याय स्थितिबन्धमनुपक्रमन्नादी मूलप्रकृतीनामुत्कृष्टस्थितिबन्धमाह ।"
इससे 'कर्मप्रकृति' की स्थिति बहुत स्पष्ट हो जाती है और वह गोन्मटसारके कर्मकाण्डका प्रथम अधिकार न होकर एक स्वतन्त्र ग्रन्थ ही ठहरता है, जिसमे 'प्रकृतिसमुत्कीर्तन' को ही नहीं किन्तु प्रदेशबन्ध, स्थितिबन्ध और अनुभागबन्ध के कथनों को भी अपनी रुचि के अनुसार सकलित किया गया है और जिसका सँकलन गोम्मटसारके निर्माण से किसी समय बादको हुआ जान पड़ता है । उसे छोटा कर्मकाण्ड समझना चाहिये । इसीसे उक्त टीकाकारने उसे ‘कर्मकाण्ड' ही नाम दिया है— कर्मकाण्डका 'प्रकृतिसमुत्कीर्तन' अधिकार नाम नहीं, और अपनी टीकाको 'कर्मकाण्डस्य टीका' लिखा है; जैसा कि ऊपर एक फुटनोटमे उधृत किये हुए उसके प्रशस्तिवाक्यसे प्रकट है। पं० हेमराजने भी, अपनी भाषा टीकामे, ग्रन्थका नाम 'कर्मकाण्ड' और टीकाको 'कर्मकाण्ड-टीका' प्रकट किया है । और इस लिये शाहगढकी जिस सटिप्पण प्रतिमे इसे 'कर्मकाण्डका प्रथम अंश' लिखा है वह किसी गलतीका परिणाम जान पड़ता है । संभव है कर्मकाण्डके आदि भाग 'प्रकृतिसम्त्कीर्तन' से इसका प्रारम्भ देखकर और कर्मकाण्डसे इसको बहुत छोटा पाकर प्रतिलेखक ने इसे पुष्पिकामे ‘कर्मकाण्डका प्रथम अश' सूचित किया हो । और शाहगढ़की जिस प्रतिमे ढाई अधिकारके करीब कर्मकाण्ड उपलब्ध है उसमें कमप्रकृतिको १६० गाथाओं को जो प्रथम अधिकारके रूपमे शामिल किया गया है वह संभवतः किसी ऐसे व्यक्तिका कार्य है जिसने कर्मकाण्डके ‘प्रकृतिसमुत्कीर्तन' अधिकारको त्रुटित एव अधूरा समझकर, १० परमानन्दजीकी तरह, ‘कर्मप्रकति' प्रन्थसे उसकी पूर्ति करनी चाही है और इसलिये कर्म