________________
६०
पुरातन-जैनवाक्य-सूची
मौलिक बातों में कोई खास भेद नहीं है, उल्लेखनीय भेद केवल इतना ही है कि पद्यप्रशस्ति में ग्रन्थकारने अपना नाम नेमिचन्द्र नहीं दिया, जब कि गद्य-पद्यात्मक प्रशस्तिमें वह स्पष्टरूपसे पाया जाता है, और उसका कारण इतना ही है कि पद्यप्रशस्ति उत्तमपुरुषमे लिखी गई है । प्रन्थकी संधियों - " इत्याचार्य-नेमिचन्द्र- विरचितायां गोम्मटसारापरनाम - पंचसंग्रहवृत्तौ जीवतत्त्वप्रदीपिकायां” इत्यादिमें जीवतत्त्वप्रदीपिका टीका के कर्तृत्वरूपमें नेमिचन्द्रका नाम स्पष्ट उल्लिखित है और उससे गोम्मटसारके कर्ताका आशय किसी तरह भी नहीं लिया जा सकता। इसी तरह संस्कृत टीकामे जिस कर्नाटकवृत्तिका अनुसरण है उसे स्पष्टरूपमें केशववर्णीकी घोषित किया गया है, चामुण्डरायकी वृत्तिका उसमें कोई उल्लेख नहीं है और न उसका अनुसरण सिद्ध करनेके लिये कोई प्रमाण ही उपलब्ध है । चामुण्डरायवृत्तिका कहीं कोई अस्तित्व मालूम नहीं होता और इसलिये यह सिद्ध करनेकी कोई संभावना नहीं कि संस्कृत- जीवतन्त्प्रदीपिका चामुण्रायकी टीकाका अनुसरण करती है । गो० कर्मकाण्डको ६७२वीं गाथा में चामुण्डराय (गोम्मटाय) के द्वारा जिस 'देशी' के लिखे जानेका उल्लेख है उसे 'कर्नाटकवृति' समझा जाता है— अर्थात् वह वस्तुतः गोम्मटसारपर कर्णाटकवृत्ति लिखी गई है इसका कोई निश्चय नहीं है । '
1
सचमुचमें चामुण्रायकी कर्णाटकवृत्ति अभी तक एक पहेली ही बनी हुई है, कर्मकाण्डकी उक्त गाथा' में प्रयुक्त हुए 'देसी' पद परसे की जानेवाली कल्पनाके सिवाय उसका अन्यत्र कहीं कोई पता नहीं चलता । और उक्त गाथाकी शब्द रचना बहुत कुछ स्पष्ट है उसमें प्रयुक्त 'जा' पदका संबंध किसी दूसरे पदके साथ व्यक्त नहीं होता, उत्तरार्ध मे 'राओ' पद भी खटकता हुआ है, उसकी जगह कोई क्रियापद होना चाहिये । और जिस 'वीरमत्तंडी' पदका उसमें उल्लेख है वह चामुण्डरायकी 'वीरमार्तण्ड' नामकी उपाधिकी दृष्टिसे उनका एक उपनाम है, न कि टीकाका नाम; जैसा कि प्रो० शरच्चन्द्र घोशालने समझ लिया है, और जो नाम गोम्मटसारकी टीकाके लिये उपयुक्त भी मालूम नहीं होता । मेरी रायमे 'जा' के स्थानपर 'जं' पाठ होना चाहिये, जो कि प्राकृतमे एक अव्यय पद है और उससे 'जे' (येन) का अर्थ (जिसके द्वारा) लिया जा सकता है और उसका सम्बन्ध 'सो' (वह) पदके साथ ठीक बैठ जाता है । इसी तरह 'राओ' के स्थान पर 'जयउ' क्रियापद होना चाहिये, जिसकी वहाँ आशीर्वादात्मक अर्थकी दृष्टि से आव श्यकता है - अनुवादकों आदिने 'जयवंत प्रवर्ती' अर्थ दिया भी है, जो कि 'जयउ' पदका संगत अर्थ है । दूसरा कोई क्रियापद गाथामें है भी नहीं, जिससे वाक्यके अर्थ की ठीक संगति घटित की जा सके। इसके सिवाय, 'गोम्मटरायेण' पदमे राय' शब्दकी मौजूदगी से 'राओ' पदकी ऐसी कोई खास जरूरत भी नहीं रहती, उससे गाथाके तृतीय चरणमें एक मात्राकी वृद्धि होकर छदोभंग भी हो रहा है । 'जय' पदके प्रयोग से यह दोष भी दूर हो जाता है । और यदि 'ओ' पदको स्पष्टताकी दृष्टिसे रखना ही हो तो, 'जय' पदको स्थिर रखते हुए, उसे 'कालं' पदके स्थानपर रखना चाहिये' क्योंकि तब 'काल' पदके विना ही 'चिर' पदसे उसका काम चल जाता है, इस तरह उक्त गाथाका शुद्धरूप निम्नप्रकार ठहरता है :1
1
1
१ " गोम्मटसुत्तल्लिहणे गोम्मटरायेण जा कया देसी ।
सो राम्रो चिरं कालं णामेण य वीरमत्तंडी ॥ ६७२ ||"
२ प्रो० शरच्चन्द्र घोशाल एम ए. कलकत्ताने, 'द्रव्यसंग्रह' के अँग्रेजी संस्करण की अपनी प्रस्तावना में, गोम्मटसारकी उक्त गाथापरसे कनडी टीकाका नाम 'वीरमार्तण्डी' प्रकट किया है और जिसपर मैंने जनवरी सन् १६१८ में, अपनी समालोचना (जैनहितैषी भाग १३ अङ्क १२) के द्वारा श्रापत्ति की थी ।