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पुरातन जैनवाक्य सूची
७ वी शताब्दी से पहले ही निर्मित होना जान पड़ता है और इससे भाष्य भी अधिक प्राचीन ठहरता है । अब देखना यह है कि दोनों मूल प्रकरण दिगम्बर हैं या श्वेताम्बर अथवा ऐसे सामान्य स्रोतसे सम्बन्ध रखते हैं जहाँसे दोनों ही सम्प्रदायोंने उन्हें अपनी अपनी रुचि एवं सैद्धान्तिक स्थिति के अनुसार अपनाया है और उनका कर्ता कौन है तथा रचनाकाल क्या है ? साथ ही दोनों प्रकरणों की भाष्यगाथाएँ तथा चूर्णियाँ कब बनी हैं और किस किसके द्वारा निर्मित हुईं हैं ? ये सब बातें गहरी छान-बीन और गंभीर विचारणा से सम्ब न्ध रखती हैं, जिनके होने पर सारा रहस्य सामने आ सकेगा ।
संक्षेपमें यह ग्रन्थ अपने साहित्य की दृष्टिसे बहुत प्राचीन और विपयवर्णनादिकी दृष्टिसे अत्यन्त महत्वपूर्ण है - भले ही इसका वर्तमान 'पंचसंग्रह' के रूप में संकलन विक्रमकी ११वीं शताब्दीसे पहले कभी क्यों न हुआ हो और किसीके भी द्वारा क्यो न हुआ हो ।
४६. ज्ञानसार -- यह ग्रंथ ध्यान-विषयक ज्ञानके सारको लिये हुए है, इसमें ध्यान - विषयका सारज्ञान कराया गया है । अथवा ज्ञानप्राप्तिका सार श्रमुकरूपसे ध्यान - प्रवृत्तिको बतलाया है । और इसीसे इसका ऐसा नाम रक्खा गया मालूम होता है। अन्यथा इसे ‘ध्यानसार' कहना अधिक उपयुक्त जान पड़ता है। ध्यानविषयका इसमे कितना ही उपयोगो वर्णन है । इसकी गाथासंख्या ६३ है और उसे ७४ श्लोकपरिमाण बतलाया गया है । इसके कर्ता श्रीपद्मसिंह मुनि हैं, जिन्होने अपने मनके प्रतिबोधनार्थ और परमात्मस्वरूपकी भावनाके निमित्त श्रावण शुक्ला नवमी वि० संवत् १०८६ को 'अम्बक' नगर मे इस ग्रन्थ की रचना की है। गून्थकारने अपना तथा अपने गुरु आदिकका कोई परिचय नहीं दिया, और इसलिये उनके विषय मे कुछ नहीं कहा जा सकता, यह सब विशेष अनुसन्धानसे सम्बन्ध रखता है । गन्धकी ३६वीं गाथामे बतलाया है कि जिस प्रकार पाषाण में सुवर्ण और काष्ठ अग्नि दोनों विना प्रयोग के दिखाई नहीं पड़ते उसी प्रकार ध्यानके बिना आत्माका दर्शन नहीं होता और इससे ध्यानका माहात्म्य, लक्ष्य एवं फल स्पष्ट जान पड़ता है, जिसे ध्यानमे लेकर ही यह ग्रन्थ लिखा गया है। यह ग्रन्थ मूलरूप से माणिकचन्द्रग्रंथमालामें प्रकट हो चुका है।
४७. रिष्टसमुच्चय- यह ग्रंथ मृत्युविज्ञान से सम्बन्ध रखता है । इसमे अनेक पिण्डस्थ, पदस्थ तथा रूपस्थादि चिन्हों-लक्षणों, घटनाओं एव निमित्तोंके द्वारा मृत्युको पहलेसे जान लेनेकी कलाका निर्देश है । इसके कर्ता श्रीदुर्गदेव हैं जो उन सयमदेव मुनीश्वर के शिष्य थे जिनकी बुद्धि षट्दर्शनोंके अभ्याससे तर्कमय हो गई थी, जो पञ्चाङ्ग तथा शब्दशास्त्रमे कुशल थे. समस्त राजनीतिमे निपुण थे, वादिगजों के लिये सिंह थे और सिद्धान्तसमुद्रपारको पहुॅचे हुए थे । उन्हीं की आज्ञासे यह ग्रन्थ 'मरणकण्डिका" आदि अनेक प्राचीन ग्रन्थो का उपयोग करके तीन दिनमे रचा गया है और (विक्रम) सवत् १०८६ की श्रावण शुक्ला एकादशीको मूल नक्षत्र के समय श्रीनिवास राजाके राज्यकालमें कुम्भनगरके शान्तिनाथ मन्दिरमे बनकर समाप्त हुआ है। दुर्गदेवने अपनेको 'देसजई' (देशयति) बतलाया है, और इससे वे श्रष्टमूलगुण सहित श्रावकीय १२ व्रतों से भूपित' अथवा क्षुल्लक साधुके पदपर प्रतिष्ठित जान पड़ते हैं । साथ ही, अपने गुरुओं मे संयमसेन और माधवचन्द्रका भी नामोल्लेख किया है, परन्तु उनके विपयमे अधिक कुछ नहीं लिखा । डा० अमृतलाल सवचन्द गोपाणीने अपनी प्रस्तावनामे उन्हें सयप्रदेवके क्रमश. गुरु तथा दार्दा गुरु बतलाया है, परन्तु यह बात मूलपरस स्पष्ट नहीं होता ।
१ "मूल गुण उत्ता बाग्द्दवयभूमिश्रो हु देसजई ” भावसग्रहे देवसेन:
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२ जयउ जए जियमाणो संजमदेवो मुणीसरो इत्य ।
तहविहु सजमसेगो माहवचंदो गुरू तह य ॥ २५४ ॥