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पुरातन-जैनवाक्य-सूची पद्धतिको इस अधिकार में अपनाया नहीं गया है। इन्हें भाष्य अथवा व्याख्यान गाथाएं कहा जा सकता है । इनकी अनुपस्थितिसे मूल ग्रन्थके सिलसिले अथवा उसकी सम्बद्ध रचनामे कोई अन्तर नहीं पड़ता।
(E) कर्मकाण्डकी ३१वीं गाथाके बाद कर्मप्रकृतिमे 'घम्मा वसा मेघा' 'मिच्छापुठवदुगादिसु' 'विमलचउक्के छ?' 'सविदेहेसु तहा' नामकी ४ गाथाए उपलब्ध हैं, जिन्हें भी कर्मकाण्डमे त्रुटित बतलाया जाता है। इनमेसे पहली गाथा जो नरकभूमियोंके नामों की है, प्रकृत अधिकारका कोई आवश्यक अग मालूम नहीं होती । जान पड़ता है ३१वीं गाथामे 'मेघा' पृथ्वीका जोनामोल्लेख है और शेप नरकभूमियोंकी विना नामके ही सूचना पाई जाती है, उसे लेकर किसीने यह गाथा उक्त गाथाकी टिप्पणीरूपमे त्रिलोकसार अथवा जवूद्वीपप्रज्ञप्ति परसे अपनी प्रतिमे उद्धृत की होगी, जहाँ यह क्रम.श नं० १५५ पर तथा ११वें अ० के नं० ११२ पर पाई जाती है, और वहाँसे सग्रह करते हुए यह कर्मप्रकृतिके मूलमें प्रविष्ट हो गई है । शाहगढ़के उक्त टिप्पणमे इसे भी 'सिय अस्थि णत्थि' गाथाकी तरह प्रक्षिप्त बतलाया है और सिद्धान्त-गाथा प्रकट किया है। शेष तीन गाथाएं जो सहननसम्बन्धी विशेप कथनको लिये हुए हैं, यद्यपि प्रकरण के साथ संगत हो सकती हैं परन्तु वे उसका कोई ऐसा आवश्यक अंग नहीं कही जा सकनों जिसके प्रभावमें उसे त्रुटित अथवा असम्बद्ध कहा जा सके। मूल-सूत्रोंमे इन चारों ही गायोमेसे किसीके भी विपयसे मिलता जुलता कोई सूत्र नहीं है, और इसलिये इनकी अनुपस्थितिसे कर्मकाण्डमें कोई असंगति पैदा नहीं होती।
(१०) कर्मकाण्डकी ३२वीं गाथाके अनन्तर कर्मप्रकृतिमें 'पंच य वएणस्सेदं' 'तित्तं कडुवकसायं' 'फास अट्टवियप्पं' 'एदा चोदसपिंडप्पयडीओ' अगुरुलघुगउवघाद' नामकी ५ गाथाएं उपलब्ध हैं और ३३वीं गाथाके अनन्तर तस थावर च बादर' 'सुहअसुहसुहगदुन्भग' 'तसबादरपज्जत' 'थावरसुहमपज्जत्तं' 'इदि णामप्पयडीओ तह दाणलाहभोगे' ये ६ गाथाएँ उपलब्ध हैं, जिन सबको भी कर्मकाण्डमे त्रुटित बतलाया जाता है । इनमेसे ६ गाथाओं में नामकर्मकी शेप वर्णादि-विषयक उत्तरप्रकृतियोंकी और पिछली दो गाथाओंमे गोत्रकर्मकी २ तथा अन्तरायकर्मकी ५ उत्तरप्रकृतियोंका नामोल्लेख है । यद्यपि मूल-सूत्रोंके साथ इनका कथनक्रम कुछ भिन्न है परन्तु प्रतिपाद्य विपय प्राय. एक ही है, और इसलिये इन्हें संगत तथा आवश्यक कहा जा सकता है । ग्रन्थमे इन उत्तरप्रकृतियोंकी पहलेस प्रतिष्ठाके विना ३३वीं तथा अगली-अगली गाथाओंमे इनसे सम्बन्ध रखने वाले विशेष कथनोकी सगति ठीक नहीं बैठती । अतः प्रतिपाद्य विषयकी ठीक व्यवस्थाके लिये इन सब उत्तरप्रकृतियोंका मूलत: अथवा उद्देश्यरूपमे उल्लेख बहुत जरूरी है-चाहे वह सूत्रोंमें हो या गाथाओमे।
(११) कर्मकाण्डकी ३४वीं गाथा के बाद कर्मप्रकृतिमे 'वरुणरसगंधफासा' नामकी जो एक गाथा पाई जाती है उसमे प्रायः उन बन्धरहित प्रकृतियोका ही स्पष्टीकरण है जिनका सूचना पूर्वकी गाथा (३४) मे की गई है और उत्तरकी गाथा (३५ से भी जिनकी संख्या-विषयक सूचना मिलती है और इसलिय वह कर्मकाण्डका कोई आवश्यक अग नहीं है-उसे व्याख्यान-गाथा कह सकते हैं । मूल-सूत्रोमे भी उसके विषयका कोई सूत्र नही है। यह पञ्चसंग्रहके द्वितीय अधिकारकी गाथा है और सभवतः वहींस संग्रह की गई है।
(१२) कर्मकाण्डकी 'मणवयणकायवक्को' नामकी ८०८वीं गाथाक अनन्तर कर्मप्रकृतिमे 'दंसणविसुद्धिविणय' 'सत्तोदो चागतवा' 'पवयणपरमाभत्ती' । देहिं पसत्थाह' १ अनेकान्त वर्ष ३, कि० १२, पृष्ठ ७६३ ।