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प्रस्तावना
'तित्थयरसत्तकम्म' ये पाँच गाथऍ पाई जाती हैं, जिन्हें भी कर्मकाण्ड में त्रुटित बतलाया जाता है। इनमेसे प्रथम चार गाथाओंमे दर्शनविशुद्धि आदि षोडश भावनाओंको तीर्थकर नामकर्म के बन्धकी कारण बतलाया है और पॉचवीं में यह सूचित किया है कि तीर्थङ्कर नामकर्मकी प्रकृतिका जिसके बन्ध होता है वह तीन भवमें सिद्धि (मुक्ति) को प्राप्त होता है
और जो क्षायिक-सम्यक्त्वसे युक्त होता है वह अधिक-से-अधिक चौथे भवमे जरूर मुक्त हो जाता है । यह सब विशेष कथन है और विशेप कथनके करने-न-करनेका हरएक ग्रन्थकारको अधिकार है । ग्रन्थकार महोदयने यहाँ छठे अधिकार में सामान्य-रूपसे शुभ और अशुभ नामकर्मके बन्धके कारणोंको बतला दिया है-नामकर्मकी प्रत्येक प्रकृति अथवा कुछ खास प्रकृतियोंके बन्ध-कारणोंको बतलाना उन्हें उसी तरह इष्ट नहीं था जिस तरह कि ज्ञानावरण, दर्शनावरणे और अन्तराय जैसे कर्मों की अलग-अलग प्रकतियोंके वंधकारणोंको बतलाना उन्हें इष्ट नही था; क्योकि वेदनीय, आयु और गोत्र नामके जिन कर्मो की अलग-अलग प्रकतियोके बन्ध-कारणाँको बतलाना उन्हें इष्ट था उनको उन्होने बतलाया है। ऐसी हालतमे उक्त विशेष-कथन-वाली गाथाओंको त्रुटित नहीं कहा जा सकता और न उनकी अनुपस्थितिसे ग्रन्थको अधूरा या लॅडूरा ही घोषित किया जा सकता है। उनके अभावमे ग्रन्थकी कथन-संगतिमे कोई अन्तर नहीं पड़ता और न किसी प्रकारकी बाधा ही उपस्थित होती है।
इस प्रकार त्रुटित कही जानेवाली ये ७५ गाथाएँ हैं, जिनमेंसे ऊपरके विवेचनानुसार मूलसूत्रोंसे सम्बन्ध रखने वाली मात्र ८ गाथाएं ही ऐसी हैं जिनका विषय प्रस्तुत कर्मकाण्डके प्रथम अधिकारमे त्राटत है और उस त्रुटित विषयकी दृष्टिसे जिन्हें त्रटित कहा जा सकता है, शेष ४७ गाथाओंमेसे कुछ असगत हैं, कुछ अनावश्यक हैं और कुछ लक्षण-निर्देशादिरूप विशेष कथनको लिये हुए हैं, जिसके कारण वे त्रुटित नहीं कही जा सकतीं। अब प्रश्न यह पैदा होता है कि क्या उक्त २८ गाथाओंको, जिनका विपय त्रुटित है, उक्त अधिकारमे यथास्थान प्रविष्ट एव स्थापित करके उसकी त्रुटि-पूर्ति और गाथासख्यामे वृद्धि की जाय ? इसके उत्तरमे मैं इतना ही कहना चाहता हूँ कि, जब गोम्मटसारकी प्राचीनतम ताडपत्रीय प्रतिमे मूल-सूत्र उपलब्ध हैं और उनकी उपस्थितिमे उन स्थानोंपर टित अशकी कोई कल्पना उत्पन्न नहीं हाती-सब कुछ संगत हो जाता है-तब उन्हें ही ग्रन्थकी दूसरो प्रतियोंमें भी स्थापित करना चाहिये । उन सूत्रों के स्थानपर इन गाथाओंको तभी स्थापित किया जा सकता है जब यह निश्चित और निर्णीत हो कि स्वयं ग्रन्थकार नेमिचन्द्राचार्यने ही उन सूत्रोके स्थानपर बादको इन गाथाओंकी रचना एव स्थापना की है, परन्तु इस विषयके निर्णयका अभी तक कोई समुचित साधन नहीं है। '
(कर्मप्रकृतिको उन्हीं सिद्धान्तचक्रवर्ती आचार्य नेमिचन्द्रकी कृति कहा जाता है, परन्तु उसके उन्हींकी कृति होनेमे अभी सन्देह है । जहाँ तक मैंने इस विषयपर विचार किया है मुझे वह उन्हीं आचार्य नेमिचन्द्रकी कृति मालूम नहीं होती, क्योंकि उन्होंने यदि गोम्मटसार-कर्मकाण्डके बाद उसके प्रथम अधिकारको विस्तार देनेकी दृष्टिसे उसकी रचना की होती तो वह कृति और भी अधिक सुव्यवस्थित होती उसमे असंगत तथा अनावश्यक गाथाओंको-खासकर ऐसी गाथाओंको जिनसे पूर्वापरकी गाथाएं व्यर्थ पड़ती हैं अथवा अगले अधिकारोंमें जिनकी उपस्थितिसे व्यर्थकी पुनरावृत्ति होती है-स्थान न दिया जाता, जो कि सिद्धान्त-चक्रवर्ती-जैसे योग्य प्रथकार की कृतिमे बहुत खटकती हैं, और न उन ३५ (न०५२ से ८६ तककी) सङ्गत गाथाओको निकाला ही जाता जो उक्त अधिकारमे पहलेसे मौजूद थीं
और अब तक चली आती हैं और जिन्हें कर्मप्रकृतिमे नहीं रक्खा गया । साथ ही, अपनी १२१वीं अथवा कर्मकाण्डकी 'गदिनादीउस्सासं नामक ५१वीं गाथाके अनन्तर ही 'प्रकृतिसमु