________________
प्रस्तावना इसमे जीव तथा कर्म-विषयक करणानुयोगके प्राचीन प्रथोंका अच्छा सुन्दर सार खींचा गया है। इसीसे यह विद्वानोंको बड़ा ही प्रिय तथा रुचिकर मालूम होता है; चुनाँचे प्रसिद्ध विद्वान पंडित सुखलालजीने अपने द्वारा सम्पादित और अनुवादित चतुर्थ कर्मग्रथकी प्रस्तावनामें, श्वेताम्बरीय कर्मसाहित्यकी गोम्मटसारके साथ तुलना करते हुए और चतुर्थ कर्मग्रंथके सम्पूर्ण विपयको प्रायः जीवकाण्डमे वर्णित बतलाते हुए, गोम्मटसारकी उसके विषय-वर्णन, विषय-विभाग और प्रत्येक विषयके सुस्पष्ट लक्षणोकी दृष्टिसे प्रशंसा की है
और साथ ही निःसन्देहरूपसे यह बतलाया है कि-"चौथे कर्मग्रथके पाठियोंके लिये जीवकाण्ड एक खास देखनेकी वस्तु है, क्योंकि इससे अनेक विशेष बातें मालूम हो सकती हैं।"
इस प्रथका प्रधानतः मूलाधार आचार्य पुष्पदन्त-भूतबलिका षट् खण्डागम और वीरसेनकी धवला टीका तथा दिगम्बरीय प्राकृत पञ्चसग्रह नामके ग्रथ है । पचसंग्रहमे पाई जानेवाली सैंकड़ो गाथाएँ इसमे ज्यों-की-त्यो तथा कुछ परिवर्तनके साथ उद्धृत हैं और उनमेसे बहुत-सी गाथाएँ ऐसी भी हैं जो धवलामे ज्यों-की-त्यों अथवा कुछ परिवर्तनके साथ 'उक्तञ्च' आदि रूपसे पाई जाती है । साथ ही षटखण्डागमके बहुतसे सूत्रोंका सार खींचा गया है। शायद पट खण्डागमके जीवस्थानादि पॉच खण्डोके विपयका प्रधानतासे सार-सग्रह करनेके कारणे ही इसे 'पञ्चसग्रह' नाम दिया गया हो। (क) ग्रन्थके निर्माणमें निमित्त चामुण्डराय 'गोम्मट'
___ यह ग्रंथ नेमिचन्द्र-द्वारा चामुण्डरायके अनुरोध या प्रश्नपर रचा गया है, जो गङ्गवशी राजा राचमल्लक प्रधानमन्त्री एव सेनापति थे, अजितसेनाचार्य के शिष्य थे और जिन्होंने श्रवणबेल्गोलमे बाहुबलि-स्वामीकी वह सुन्दर विशाल एव अनुपम मूति निर्माण कराई है जो संसारके अद्भुत पदार्थो मे परिगणित है और लोकमे गोम्मटेश्वर-जैसे नामोंसे प्रसिद्ध है।
चामुण्डरायका दूसरा नाम 'गोम्मट' था और यह उनका ग्वास घरेलू नाम था, जो मराठी तथा कनडी भाषामे प्रायः उत्तम, सुन्दर, आकर्पक एव प्रसन्न करनेवाला जैसे अर्थो मे व्यवहृत होता है.' और 'राय' (राजा) की उन्हें उपाधि प्राप्त थी । ग्रंथमें इस नामका उपाधि-सहित तथा उपाधि-विहीन दोनों रूपसे स्पष्ट उल्लेख किया गया है और प्रायः इसी प्रिय नामसे उन्हें आशीर्वाद दिया गया है, जैसा कि निम्न दो गाथाओंसे प्रकट है -
अज्जज्जसेण-गुणगणसमूह-संधारि-अजियसेणगुरू । भुवणगुरू जस्म गुरू सो राम्रो गोम्मटो जयउ॥७३३।। जेण विणिम्मिय-पडिमा-वयणं सबसिद्धि-देवेहि ।
सव्व-परमोहि-जोगिहिं दिह सो गोम्मटो जयउ॥क०६६६॥ इनमें पहली गाथा जीवकाण्डकी और दूसरी कर्मकाण्डकी है । पहलीमे लिखा है 'कि 'वह राय गोम्मट जयवन्त हो जिसके गुरु वे अजितसेनगुरु हैं जो कि भुवनगुरु हैं और
आचार्य आयसेनके गुण-गण-समूहको सम्यक प्रकार धारण करने वाले–उनके वास्तविक शिष्य हैं ।' और दूसरी गाथामे बतलाया है कि 'वह 'गोम्मट' जयवन्त हो जिसकी निर्माण कगई हुई प्रतिमा (बाहुबली की मूर्ति) का मुख सवार्थसिद्धिके देवो और सर्वावधि तथा परमावधि ज्ञानके धारक योगियों-द्वारा भी (दूरसे ही) देखा गया है।'
चामुण्डराय के इस गोम्मट' नामके कारण ही उनकी बनवाई हुई बाहुबलीकी मूर्ति 'गोम्मटेश्वर' तथा 'गोम्मटदेव' जैसे नामोंसे प्रसिद्धिको प्राप्त हुई है, जिनका अर्थ है गोम्मटका ईश्वर, गोम्मटका देव । और इसी नामकी प्रधानताको लेकर ग्रन्थका नाम 'गोम्मटसार' दिया गया है, जिसका अर्थ है 'गोम्मटके लिये खींचा गया पूर्व के (पटखण्डागम तथा १ देखो, अनेकान्त वर्ष ४ किरण ३, ४ में डा० ए० एन० उपाध्येका 'गोम्मट' नामक लेख ।