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नोट --- सौधर्म देवलोक की देवी व ईशान देवलोक की देवी का परिचारणा सम्बन्ध क्रमश: १, ३, ५, ७ देवलोक के देवों से, २, ४, ६, ८ देवलोक के देवों से है । [ "सनत्कुमार माहेन्द्रयोः कल्पयोर्देवा: स्पर्शपरिचारकाः, स्पर्शेन — स्तनभुजोरुजघनादिगात्रस्पर्शेन परिचार - प्रवीचारों" मलय टीका पद ३४ ] अर्थात् सनत्कुमार माहेन्द्रदेव - देवी के साथ स्पर्श परिचारणा ( स्तन, भुजा, पेट जंघादि का स्पर्श ) करते हैं ।
( भवनपति यावत् ईशान देवों तक ) उन देवों के शुक्र पुद्गल होते हैं । वे शुक्र पुद्गल उन अप्सराओं के लिए बार-बार श्रोत्रेन्द्रिय रूप से, चक्षुरिन्द्रिय रूप से, रसेन्द्रिय रूप से, घ्राणेन्द्रिय रूप से, स्पर्शेन्द्रिय रूप से, इष्ट रूप से, कमनीय रूप से, मनोज्ञ रूप से, अति मनोज्ञ ( मनाम ) रूप से, सुभग रूप से, सौभाग्य - रूपयौवन- गुण - लावण्य रूप से परिणत होते हैं ।
नोट – कायिक मैथुन सेवन से मनुष्यों की तरह शुक्रपुदगलों का क्षरण होता है परन्तु वह वैक्रियशरीरवर्ती होने के कारण गर्भाधान का कारण नहीं होता, किन्तु देवियों के शरीर में उन शुक्रपुद्गलों के संक्रमण से सुख उत्पन्न होता है । शुक्र के पुद्गल और देव
मणुण्णत्ताए मणामत्ताए सुभगत्ताए सोहग्ग-रूब-जोवण्ण-गुणलावण्णताए ते तास भुज्जो भुज्जो परिणमंति ।
भवनपति, वाणव्यन्तर, परिचारक होते हैं ।
- पण्ण ० प ३४ । सू २०५२ ज्योतिष्क और सौधर्म - ईशान कल्प के देव काय
तब वे देव उन अप्पसराओं के साथ कायपरिचारणा ( शरीर से मैथुन - सेवन ) करते हैं । जैसे शीतपुद्गल, शीतयोनिवाले प्राणी को प्राप्त होकर अत्यन्त शीत अवस्था को प्राप्त करके रहते हैं, अथवा उष्ण पुद्गल जैसे उष्ण योनि वाले प्राणी को पाकर अत्यन्त उष्ण अवस्था को प्राप्त करके रहते हैं, उसी प्रकार उन देवों द्वारा अप्पसराओं के साथ काया से परिचारणा करने पर उनका इच्छा मन ( इच्छा
प्रधान मन ) शीघ्र ही हट जाता है - तृप्त हो जाता है ।
मारणान्तिक समुद्घात मरणकाल में हो सकता है, शेष समय में नहीं, वह भी सब जीव नहीं करते । अंतराल गति में नहीं होता है ।
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