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१४ ]
कविवर वृन्दावन विरचित
आचारज उवझाय साधुके सुगुन ध्याय,
पंचाचारमांहि वृन्द जे अखंडवत है ।। येई पंच पर्म इष्ट देत हैं अमिष्ट शिष्ट, तिनें भक्ति भावसों हमारी दंडवत है ॥ ९ ॥
दोहा । देव सिद्ध अरहंतको, निज सत्ता आधार । सूर साधु उवझाय थित, पंचाचारमझार ॥ १० ॥
ज्ञान दरंश चारित्र तप, वीरज परम पुनीत । येही पंचाचारमें, विचरहिं श्रमण सनीत ॥ ११ ॥
(३)
अशोकपुष्पमंजरी । पंच शून्य पंच चार योजन प्रमान जे,
मनुण्यक्षेत्रके विषै जिनेश वर्तमान हैं। तासके पदारविंद एक ही सु वार वृन्द,
फेर भिन्न भिन्न वंदि भव्य-अब्ज-भान हैं । वर्तमान भर्तमें अबै सुवर्तमान नाहिं,
श्रीविदेहथानमें सदैव राजमान हैं । द्वैत औ अद्वैतरूप वन्दना करौं त्रिकाल, सो दयाल देत रिद्धि सिद्धिके निधान हैं ॥ १२ ॥
. दोहा। आठौं अंग नवाइकै, भूमें दंडाकार । मुखकर सुजस उचारिये, सो वन्दन विवहार ॥ १३ ॥