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* प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित
अनुसार, ३-६ मे पंचमी विभक्ति के बहुवचन में संस्कृतोय प्रत्यय 'भ्यस्' के स्थान पर 'हिन्तो' 'सुन्तों' और 'हि' प्रत्ययों को क्रमिक प्रदेश-प्राप्ति; ३-१३ और ३-१५ से 'बक्छ' शब्दान्त्य हस्व स्वर 'अ' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से तथा क्रम से 'आ' अथवा 'ए' की प्राप्ति होकर वच्छाद्दिन्तो, वच्छे हिन्ती, वच्छासुन्तो, च्छ्रेन्ती, वच्छा है और वच्छेहि रूपों की सिद्धि हो जाती है।
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दाण - शस्येत् ॥ ३-१४॥
टादेशे ये शसि च परे अस्य एकारो भवति || टाय । चच्छेगा || खेति किम् | अध्या अप्पणिमा | अप्पनइआ । शस् । धच्छे पेच्छ ||
अर्थ:- प्राकृतीय अकारान्त शब्दों में तृतीया विभक्ति के एक वचन में संस्कृतीच प्रत्यय 'टा' के स्थान पर 'रण' की आदेश-प्राप्ति होने पर अन्त्य 'अ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति हो जाती है । जैसे:वृक्षेन = वच्छे अर्थात् वृक्ष से । इसी प्रकार से द्वितीया विभक्ति के बहु वचन में भी संस्कृतीय प्रस्थय 'जस्' के स्थान पर नियमानुसार लोप स्थिति' प्राप्त होने पर अन्त्य 'अ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति हो जाती है । जैसे:- छान पश्यन्वच्छे पेश्त्र अर्थात वृक्षों को देखो ।
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प्रश्न:- तृतीया विभक्ति के एक वचन में 'ण' प्रदेश-प्राप्ति होने पर हो अन्त्य 'अ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति होती है; ऐसा क्यों उल्लेख किया गया है !
उत्तरः-'आत्मा=श्रप्प' आदि शब्दों में तृतीया विभक्ति के एक वचन में संस्कृतोय प्रत्यय 'टा' के स्थान पर सूत्र - संख्या ३-५५, ३-५६ और ३-४७ से 'णा', 'णिया' और 'इना' प्रत्ययों की आदेशमाभि होता है; तदनुसार तृतीया विभक्ति एक वचन में सूत्र संख्या ३-६ के अनुसार 'टा' के स्थान पर प्राप्तब्य 'ण' का अभाव हो जाता है और ऐसा होने पर शब्द अन्त्य 'अ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति नहीं होगी। इसलिये यह भार - पूर्वक कहा गया है कि ' आदेश-प्राप्ति होने पर ही 'अ' को 'ए' की प्राप्ति होती है अन्यथा नहीं । जैसे:-आत्मना अप्पणा, अप्पणिया और अप्पणइश्रा श्रर्थात् आत्मो से ।
'वच्छ्रेण' रूप की सिद्धि सूत्र संख्या में की गई है।
आत्मना संस्कृत तृतीयान्त एकवचन रूप है । इसके प्राकृत रूप अपणा, श्रपणिश्रा और पण होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र - संख्या १-८४ आदि दीर्घ स्वर 'आ' के स्थान पर ह्रस्व स्वर 'अ' की प्राप्तिः २-५१ से संयुक्त व्यञ्जन 'हम' के स्थान पर 'प' की आदेश प्राप्ति; २८६ से आदेश प्राप्त 'प' को द्वित्व 'प' की प्राप्ति ३-५६ से प्राप्त रूप 'अप्प' में 'ध्यान' का संयोग; १-८४ से प्राप्त संयोग रूप 'प्राण' में स्थित दीर्घ स्वर 'आ' के स्थान पर हस्व स्वर 'अ' की प्राप्ति १-१० से 'अप्प' में स्थित अन्त्य 'अ' स्वर के आगे 'अण' का 'अ' होने से लोप; और ३-६ से प्राप्त संस्कृतीय