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तओ दुस्सन्नप्पा-दुहे, मूढ़े वुग्गाहिते । दुष्ट, मूर्ख और भूमित व्यक्ति को प्रतिबोध देना दुष्कर है ।
-स्थानांग (३/४) जावन्तऽविजापुरिसा, सव्वे ते दुक्ख संभवा ।
लुप्पन्ति बहुसो मूढा, संसारम्मि अणंतए । सभी अविद्यावान दुःखी होते हैं-वे मूढ़ अनंत संसार में बार-बार लुप्त होते हैं अर्थात् जन्म-मरण करते रहते हैं ।
-उत्तराध्ययन (६/१)
अद्वेष
वैराई कुवइ वेरी, तओ वेरेहिं रजइ ।
पावोवगा य आरंभा, दुक्खफाया य अन्तसो॥ वैर रखनेवाला द्वेषी मनुष्य सदैव वैर ही किया करता है और वह वैर में ही आनन्दित होता है। परन्तु यह प्रवृत्ति पापकारक एवं अहितकर है और अन्त में दुःख प्रदान करनेवाली है ।
-सूत्रकृताङ्ग ( १/८/७) न विरुज्झेज केण वि। किसी के भी साथ वैर-विरोध नहीं करना चाहिये ।
-सूत्रकृताङ्ग ( १/११/१२) भूएहिं न विरुज्झेजा। किसी भी जीव के साथ वैर-विरोध न बढ़ाएँ ।
-सूत्रकृताङ्ग ( १/१५/४) वेराणुबद्धा नरयं उति । वैर में आबद्ध जीव नरक को प्राप्त करते हैं ।
-उत्तराध्ययन (४/२) ८ ]
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