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तुलियाण बालभावं अबालं चेव पंडिए।
चइऊण बालभावं, अबालं सेवई मुणी॥ विवेकी मुनि को, बालभाव अर्थात् अज्ञान एवं अबालभाव अर्थात ज्ञान दोनों का तुलनात्मक चिन्तन कर बाल-भाव को सम्पूर्ण त्याग देना चाहिए और अबालभाव को स्वीकार करना चाहिये ।
- उत्तराध्ययन (७/३० ) भोगामिसदोसविसन्ने, हियनिस्सेयसबुद्धि वोच्चत्थे । बाले य मन्दिए मूढे, बज्झइ मच्छिया व खेलम्मि ॥ काम-भोगों में आसक्त एवं अपने हित तथा निःश्रेयस् की बुद्धि का त्याग करनेवाले अज्ञानी मानव विषय-भोग में वैसे ही चिपके रहते हैं, जैसे श्लेष्म (कफ) में मक्खी ।
- उत्तराध्ययन (८/५) जया य चयइ धम्म, अणजो भोगकारणा।
से तत्थ मुच्छिए बाले, आयई नावबुज्झई ॥ जो अज्ञानी भोगों में मृच्छित हो उन के लिए धर्म को त्याग देता है, वह बोध को प्राप्त नहीं होता है ।
-दशवैकालिक-चूलिका ( १/१) अण्णाणी पुणरत्तो सव्वदव्वेसु कम्ममज्झगदो।
लिप्पदि कम्मरएण दु कद्दममज्झे जहा लोहं ॥ जो अज्ञानी सभी द्रव्यों में आसक्त है, वह कर्मों के मध्य रहा हुआ कम-रज से वैसे ही लिप्त होता है, जैसे कीचड़ में पड़ा हुआ लोहा जंग से लिप्त हो जाता है।
-समयसार ( २१६) हा ! जह मोहियमइणा, सुग्गइमग्गं अजाणमाणेणं । भीमे भवकतारे, सुचिरं भमियं भयकरम्मि॥ हा ! खेद है कि सुगति का मार्ग न जानने के कारण मैं मूढ़गति भयानक और घोर संसार रूपी अटवी में चिरकाल तक भ्रमण करता रहा।
-मरण समाधि (५६०)
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