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प्राकृत साहित्य का इतिहास पास होने से मागधी को ही अर्धमागधी कहा गया है ।' देखा जाय तो अर्धमागधी का यही लक्षण ठीक मालूम होता है। यह भाषा शुद्ध मागधी नहीं थी, पश्चिम में शौरसेनी और पूर्व में मागधी के बीच के क्षेत्र में यह बोली जाती थी, इसीलिये इसे अर्धमागधी कहा गया है। महावीर जहाँ विहार करते, इसी मिली-जुली भाषा में उपदेश देते थे। शनैःशनैः और भी प्रान्तों की देशी भाषाओं का मिश्रण इसमें हो गया । जैन आगमों को संकलित करने के लिये स्कंदिलाचार्य की अध्यक्षता में मथुरा में और देवर्धिगणि क्षमाश्रमण की अध्यक्षता में वलभी में भरनेवाले साधु-सम्मेलनों के पश्चात् जैन आगमों की अर्धमागधी में अवश्य ही इन स्थानीय प्राकृतों का रंग चढ़ा होगा । हरिभद्रसूरि ने जैन आगमों की भाषा को अर्धमागधी न कह कर प्राकृत नाम से उल्लिखित किया है। हरमन जैकोबी ने इसे जैन प्राकृत नाम दिया है, जो उचित ही है।
शौरसेनी शौरसेनी शूरसेन (व्रजमंडल, मथुरा के आसपास का प्रदेश) की भाषा थी । इसका प्रचार मध्यदेश (गंगा-यमुना की उपत्यका) में हुआ था | भरत (ईसवी सन की तीसरी शताब्दी) ने अपने • नाट्यशास्त्र में शौरसेनी का उल्लेख किया है, जबकि महाराष्ट्री का नाम यहाँ नहीं मिलता | नाट्यशास्त्र (१७.४६) के अनुसार नाटकों की बोलचाल में शौरसेनी का आश्रय लेना चाहिये, तथा (१७.५१ ) महिलाओं और उनकी सहेलियों को इस भाषा में
१. शौरसेन्या अदूरत्वादियमेवार्धमागधी (१२.३८) तुलना कीजिये क्रमदीश्वर के संक्षिप्तसार (५.९८) से जहाँ अर्धमागधी को महाराष्ट्री और मागधी का मिश्रण स्वीकार किया है। २. बालस्त्रीवृद्धमूर्खाणां नृणां चारित्रकांक्षिणाम् । अनुग्रहार्थं तत्त्वज्ञैः सिद्धान्तः प्राकृतः स्मृतः ॥
(दशवैकालिकवृत्ति, पृ० २०३).