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प्रमैयबोधिनी टीका पद ५ सू.१४ दिनदेशिकपुद्गलपर्यायनिरूपणम् ८३३ गौतम ! जवन्यावगनकोऽनन्तप्रदेशिकः स्कन्धो जघन्यावगाहनकस्य अनन्त प्रदेशिकस्य स्कन्धस्य द्रव्यार्थतया तुल्यः, प्रदेशार्थतया पदस्थानपतितः, अवगाहनार्थतया तुल्यःस्थित्या चतु:स्थानपतितः, वर्णादिभिरुपरितनचतुःस्पर्शः पम्थानपतितः, उत्कृष्टावगाहनकोऽपि एवञ्चैव, नवरम्-स्थित्या तुल्यः अजघन्यानुत्कृटावगानकानां भदन्त ! अनन्तप्रदेशिकानां पृच्छा, गौतम ! अनन्ता पर्यवाः प्रज्ञप्ताः, तत् केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते अजघन्यानुत्कृष्टावगाहनकानामनन्तप्रदेशिकानामनन्ताः पर्यवाः प्रज्ञप्ताः' गौतम ! अजघन्यानुत्कृप्टावगाहन पण्णत्ता ?) हे भगवन् ! किसकारण ऐसा कहा जाता है कि जघन्य अवगाहना वाले अनन्त प्रदेशी स्कंधों के अनन्त पर्याय हैं ? (गोयमा ! जहण्णोगाहणए अणंतपएसिए ग्वधे जहण्णोगाहणगस्स अणंतपएसियस्स बंधस्स दव्यट्टयाए तुल्ले) हे गौतम ! जघन्य अवगाहना वाला अनन्तप्रदेशी स्कंध जघन्य अवगाहना वाले अनन्तप्रदेशी स्कंध से द्रव्य की दृष्टि से तुल्य है (पण्सट्टयाए छट्ठाणवडिए) प्रदेशों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित है (ओगाहणट्टयाए तुल्ले) अवगाहना की अपेक्षा से तुल्य है (ठिईए चउट्ठाणवडिए) स्थिति से चतुःस्थानपतित है (वण्णाइउवरिल्लचउफासेहिं छहाणवडिए) वर्णादि से तथा ऊपर के चार स्पर्णी से षट्स्थानपनित है (उक्कोसोगाहणए वि एवं चेव) उत्कृष्ट अवगाहना वाला भी इसी प्रकार (नवरं ठिईए वि तुल्ले) विशेप यह कि स्थिति से वह तुल्य है
(अजहण्णमणुक्कोसोगाहणगाणं भंते ! अणंतपएमियाणं पुच्छा ?) हे भगवन् ! मध्यम अवगाहना वाले अनन्तप्रदेशी कंधों के पर्यायों पर्याय छ ? (गोयमा। जहण्णोगाण अणंतपएमिए यधे जहण्णोगाहणगस्म अणंतपाएसियास खंघम्स इन्वट्ठयाए तुल्ले) 3 गौतम | धन्य मानावाणा અન તપ્રદેશી કધ જઘન્ય અવગાહનાવાળા અન તપ્રેદેશી રકધથી દ્રવ્યની टिम्मे तुल्य छ (पएमट्टयाए छटाणपडिए) प्रदेशोनी अपेक्षा पट्थान पतिन छ (ओगाहणट्ठयाए तुल्ले) भगनानी अपेक्षा तुच्य छ (ठिहए चन्द्राणवडिए) स्थितिथी यतु थान पतित छे (वष्णाइ उरिल्ल चाफासहि छ णयडिए) पEथी तथा ९५२ना या२ २५शेथिा ५४ यान पतित छ (उपोमोगहण वि एवं चेब) ट २॥4॥नापा ५ मेरी प्रा३ (नवरं ठिईर वि तुल्ले) विशेष એ કે સ્થિતિથી પણ તે તુલ્ય છે
(अजहण्ण मणुफोसोगाहणगाणं भंते ! अगंतपएनियाणं पुन्छा ?) ભગવદ્ ! મધ્યમ અવગાહનાવાળા અનન્ત પ્રદેશ અને પર્યાયાની પૃછો ?
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