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प्रमेययोधिनी टीका पद ६ सू.३ विशेपोद्वर्तनानिरूपणम् । नि एवं सिद्धवर्जा उद्वर्तनाऽपि भणितव्या, यावत् अनुत्तरोपपातिका इति, नवरम् ज्योतिष्क वैमानिकेषु च्यवनमिति अभिलापः कर्तव्यः, द्वारम् ।
टीका-पूर्वोत्तरीत्या रत्नप्रभादि पृथिवी नैरयिकादीनामुत्पादविरहकालं प्ररूप्य सम्प्रति तेपासेबोद्वर्तनाविरहकालं प्ररूपयितुमाह-'रयप्पभापुढवि नेरइयाणं मंते ! केवइयं कालं विरहिया उक्हणाए पण्णता ?' गौतमः पृच्छति-हे भदन्त ! रत्नप्रमापृथिवी रबिकाः खलु कियन्तं कालम् उद्वर्तनया विरहिताः प्रज्ञप्ताः ? भगवानाह-'गोयमा !' हे गौतम ! 'जहण्णेणं एगं समयं उक्कोसेणं (उस्कोसणं) उत्कृष्ट (चउच्चीस सुहुत्ता) चौबीस मुहूर्त तक (एवं) इस प्रकार (लिवजा) लिद्धों को छोड कर (उध्वट्टणा वि) उद्वर्तना भी (माणियदा) कहनी चाहिए (जाव अणुत्तरोववाइयत्ति) यावत अनुत्तरोपपातिकों तक (गवर) विशेषता यह कि (जोइसियवेमाणिएसु) ज्योतिष्क और वैमानिक देवों में (चयणं ति) चयन ऐसा (अहिलावो) अभिलाप-शब्द प्रयोग (कायचो) करना चाहिए
टीकार्थ-पूर्वोक्त प्रकार से रत्नप्रभा आदि पृथिवियों के नारक आदि का उपपातविरह के काल की मरूपणा कर के अब उनकी उदघवर्तला के बिरहकाल की प्ररूपणा करने के लिए कहते हैं
गौतम प्रश्न करते हैं-हैं भगवन् ! रत्नप्रभा पृथ्वी के नारक कितने काल तक उद्वर्त्तना से रहित होते हैं ? अर्थात् रत्नप्रभा पृथ्वी से कोई भी नारक यदि न निकले तो कितने काल तक न निकले ? __ भगवान्-हे गौतम ! रत्नप्रभा पृथ्विी के नारकों की उद्वर्तना के मुहुत्ता) यावीस मुहूत (एवं) मे शते (सिद्ध वजा) सिद्धो सिवायना (उच्चद्रणा वि) अहवत ना ५५] (भाणियव्वा) डेपी न्नध्ये (जाव अणुत्तरोववाइ यत्ति) मनुत्तरीपाति सुधी (णवरं) विशेषता है (जोइसिय वेमाणिएस) ज्योतिष भने वैमानि हेवामा (चयणंति) ययन मे (अहिलावों) अमिता५-१६ प्रयोग (कायव्वो) ४२३ नये.
ટીકાથ–પૂર્વોક્ત પ્રકારથી રત્નપ્રભા આદિ પૃથ્વીના નારકે આદિના ઉપપાત વિરહના કાળની પ્રરૂપણા કરીને હવે તેમની ઉદ્વર્તનના વિરહ કાલની પ્રરૂપણા કરવા માટે કહે છે–
શ્રી ગીતમસ્વામી પ્રશ્ન કરે છે હે ભગવન્ ! રત્નાપ્રભા પૃથ્વીના નારક કેટલે સમય સુધી ઉદ્વર્તનાથી રહિત થાય છે ? અર્થાત્ રત્નપ્રભા પૃથ્વીથી કઈ પણ નારક જે ન નીકળે તે કેટલા કાળ સુધી ન નીકળે ?
શ્રી લાગવાન-હે ગૌતમ ! રત્નપ્રભા પૃથ્વીના નારકેની ઉદ્વતનાના વિરप्र० १२२