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प्रमेयबोधिनी टीका पद६ सू.५ सान्तरनिरन्तरोद्वर्तनानिरूपणम् ९८३ तस्तथा उद्वर्तनापि सिद्धवर्जा भणितव्या, यावद् वैमानिकाः नवरं ज्योतिष्कवैमानिकेषु च्यवनमिति अभिलापः कर्तव्यः, द्वारम् ॥१० ५॥ ____टीका-अथ नैरयिकादीनामुद्वर्तनां प्ररूपयितुमाह-'नेरइयाणं भंते ! कि संतरं उच्चट्टति, निरंतर उवति ?' गौतमः पृच्छति-हे भदन्त ! नैरयिकाः खलु कि सान्तरम्-किञ्चित्कालव्यवधानेन, उद्वर्तन्ते, किंवा निरन्तरम्-निरवच्छिन्नम् किंचित्कालाव्यवधानेन सततमित्यर्थः उद्वर्तन्ते ? भगवान् आह-'गोयमा ! हे हे गौतम ! सान्तर भी उद्वर्तन करते हैं, निरन्तर भी उवर्तन करते हैं (एवं) इस प्रकार (जहा) जैसा (उववाओ भणिओ) उत्पाद कहा (तहा) उसी प्रकार (उव्वट्टणा वि) उद्वर्तना भी (सिद्धवज्जा) सिद्धों को छोडकर (भाणियव्या) कहनी चाहिए (जाव वेमाणिया) वैमानिकों तक (नवरं जोइसियवेमाणिएतु चयणंति अहिलावो कायन्वो) विशेष यह कि ज्योतिष्क और वैमानिकों में 'च्यवन' ऐसा शब्द प्रयोग करना चाहिए द्वार' ____टीकार्थ-अब नैरथिक आदि जीवों की उद्वर्त्तना की प्ररूपणा की जाती है
गौतम प्रश्न करते हैं-हे भगवन् ! नारकजीव सान्तर उवर्तन करते हैं ? अर्थात् नरक से नारक जीवों के निकलने में दीच बीच में समय का व्यनधान होता है, या निरन्तर अर्थात् लगातार प्रत्येक समय निकलते ही रहते हैं ?
भगवान् उत्तर देते हैं-हे गौतम ! नारकजीव कभी सान्तर भी वतन ४२ छ. निरन्त२ ५९ वतन ४२ छ (एवं) मा रीते (जहा) २ (उबवाओ भणिओ) sपा ४ह्यो (तहा) मे ४ारे (उध्वट्टणा वि) तना पत्र (सिद्ध वज्जा) सिद्ध सिवाय (भाणियव्वा) ४डवी नये (जाव वेमाणिया) वैमानि सुधी (नवर जोइसिय वैमाणिएसु चयणंति अहिलावो कायबो) વિશેષ એ કે જ્યોતિષ્ક અને વૈમાનિકમાં “વન એ શબ્દ પ્રગટ કર જોઈએ છે ૨ |
ટીકાથ–હવે નરયિક આદિ જીવની ઉદ્વર્તનાની પ્રરૂપણ કરાય છે
શ્રી ગૌતમસ્વામી પ્રશ્ન કરે છે–હે ભગવન્! નારક જીવ સાન્તર ઉવર્તના કરે છે અથવા નિરન્તર ઉદ્ધના કરે છે ? અર્થાત્ નરકથી નારક જીવોને નિકળવામાં વચમાં વચમાં સમયનું વ્યવધાન થાય છે, અગર નિરંનર અર્થાત સતત પ્રત્યેક સમય નિકળતા જ રહે છે ?
શ્રી ભગવાન ઉત્તર આપે છે—હે ગૌતમ ! નારક જીવ કોઈ વાર સાન્તર