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में पनपती आपसी ईष्या व शत्रुत्व कीभानन्य और जैन मात्र को सिक्रिय होता देख: स्थान स्थान पर उनके द्वारा व्यक्त मानसिक व्यथा के कण बिरखरे पड़े हैं। आवश्यकतानुसार कटु आलोचना व कढोर लेख भी अत्र-तत्र दृष्टिगोचर होते हैं । साथ ही प्रेरक प्रगति का राजमार्ग भी दिखाने का यथेष्ट प्रमाण में प्रयास कयिा गया है । साधु समाज के सम्बंध में भी लखिा है । उनके शिथिलाचार, अभ्यास की मंदता व कट्टरपन की कटु आलोचना करते हुए अपना आक्रोश व्यक्त किया है ।
और सिर्फ जैन समाज, जैन धर्म एवं जैन साधु के सम्बंध में ही नहीं लिखते, हुए अन्यान्य प्रकीर्ण विषयों पर संक्षप्ति में, कतुि सुंदर चिंतनात्मक आलेखन किया है । शिक्षा, विज्ञान, आरोग्य, ब्रह्मचर्य, विश्वशांति, गुरुकुल, पत्रकारित्व, लेखक एवं पुस्तकालयादि अनेकानेक विषयों से सम्बंधित अनका चिंतन.... विचार प्रस्तुत डायरियों में पढ़ने को मिलता है ।
दैनंदिन नोंद के रूप में यह सब आलेखित किया गया हो, उसकी भाषा सहज सुगम व आकर्षक है । सरल भी है और सुंदर भी । कहीं किनष्टता के दर्शन नहीं होते । प्रसाद व प्रवाए अस्खलति रूप से प्रवाहित होता रहता है ।
साथ ही डायरी में आलेखित चिंतन इतना तो वैविध्यपूर्ण तथा विशाल भावना से सराबोर है कि जैनों के अतिरिक्त अन्य किसी भी जाति या संप्रदाय से सम्बंधित वाचक इन डायरियों का पढन करे तो उसे उसकी पसंदगी का योग्य इसमें अवश्य प्राप्त होगा ।
और उल अर्थात् पा..थे..य !
श्रीमदजी द्वारा लिखित मूल ग्रंथ 'धार्मिक गद्य संग्रह' का पढन करनेवाले को यह ग्रंथ अवश्य नया प्रतीत होगा ।
किंतु ऐसा कुछ भी नहीं है | इसमें जो कुछ नयापन है, वह तो महज इसका शाब्दिक श्रृंगार है ।
मूल ग्रंथ 'धार्मिक गद्य संग्रह' एवं 'पाथेय' में जो परिवर्तन दृष्टांगोचर होता है, वह श्रीमद्जी के चिंतन को अधिकाधिक वाचनक्षम बनाने हेतु ही किया गया है ।
वस्तुत : प्रस्तुत ग्रंथ की देह व आत्मा, चिंतान एवम सर्जन श्रीमदी को अपना ही है । मैंने तो केवल उनके भाव-देह को सुशोभित करने का कार्य किया है ।
निः स्संदेह श्रृंगार करने से प्रतिमा अधिकाधिक दर्शनीय, भावभरमा को जागृत करनेवाली सिद्ध हो, यही मेरी तमन्ना है ।
- गुणवंत शाह
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